कोरोना योद्धा? कोविड19 से ज़्यादा सरकार की उदासीनता से जूझती 'आशाएं'
देश की फ्रंटलाइन वर्कर्स जैसे आंगनवाड़ी, आशा कार्यकर्त्ता और एएनएम कम आय और कम सुविधाओं के बावजूद कोरोना की दूसरी लहर में काम करने को मजबूर थीं।
हापुड़/ग़ाज़ियाबाद: कोरोना की दूसरी लहर ने भारत के ग्रामीण इलाकों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया है। दूसरी लहर के दौरान जहां भारत अस्पतालों में जगह और चिकित्सकों की कमी से जूझ रहा था, वहीं दूसरी तरफ कई मूलभूत सुविधाओं के बिना भी आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम (ऑक्सीलरी नर्स मिडवाइफ़ या दाई) कार्यकर्ता इन गंभीर स्थितियों में भी अपनी जिम्मेदारिओं का निर्वाहन कर रहीं थीं।
हालांकि इन स्वास्थकर्मियों को इसके लिए ना तो सरकार की तरफ से कोई सुविधा दी गयी है और ना ही इनके और इनके परिवार की कोरोना से सुरक्षा के लिए कोई इंतज़ाम किये गए हैं।
भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था की नींव माने जाने वाली आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम कार्यकर्ताओं का कहना है कि कोरोना काल में उनका काम बहुत बढ़ गया है और उन्हें इसके बदले में ना तो कोई अतिरिक्त भुगतान किया गया है और ना ही कोविड संक्रमण की अवस्था में उन्हें कोई स्वास्थ्य बीमा या कोई सरकारी सुविधा दी गयी है।
"मुफ़्त सेवा चल रही है हमारी, किसी को चिंता नहीं है अगर हम मर भी जाएँ। ना ही हमारी आय का, बीमा का कोई प्रावधान है, हम कल मरते हों आज मर जाएँ," हापुड़ के शामली गाँव की रहने वाली आशा वर्कर, कुसुम कुमारी, 50, ने कहा जो 12 साल से ये काम कर रही हैं।
भारत के सबसे ज़्यादा आबादी वाले प्रदेश, उत्तर प्रदेश, जहाँ इनकी संख्या कम होने की वजह से इन पर काम का बोझ और बढ़ गया है। इंडियास्पेंड ने उत्तर प्रदेश में आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम कार्यकर्ताओं से बात की और पाया कि आशा कार्यकर्ताओं को रोज़ाना का लगभग रुपये 70 तक मिलता है और इस ही कम आय में वह कोविड की वजह से बढे हुए काम को भी करने पर मजबूर हैं।
"पुराना काम तो चल ही रहा है वो कहाँ रुका है? हर दूसरे दिन कोई नया रजिस्टर बनाने का ऑर्डर आ जाता है आज कल कि यहाँ जाओ, ये आँकड़े लाओ, कभी कोविड का, टीके का," नीरज, 37, जो 15 साल से हापुड़ के शामली गाँव में आशा कार्यकर्ता का काम कर रही हैं, ने कहा। "हमारा कार्यभार बढ़ गया है, ख़तरा बढ़ गया है पर पैसा नहीं बढ़ा है।"
काम का बोझ कई गुना ज़्यादा
आशा का मतलब होता है मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता जिन्हें सरकार ट्रेनिंग देती है। इनके काम की सूची में 72 तय काम हैं। एक आशा कार्यकर्ता का काम होता है टीकाकरण के लिए लोगों को लाना, जच्चा-बच्चा देख भाल के लिए मांओं को अस्पताल या एएनएम के पास ले जाना, अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों में लोगों को हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित करना और घरों में शौचालयों के निर्माण को सुनिश्चित करना।
शादी-शुदा, गर्भवती, स्तनपान कराने वाली मांएँ, किशोरियाँ आदि को स्वास्थ्य, पोषण, साफ़-सफ़ाई, माहवारी, परिवार नियोजन आदि के बारे में जानकारी देना, इन्हें अस्पताल या आंगनवाड़ी केंद्र आदि जाने के लिए प्रोत्साहित करना और ओआरएस घोल, आयरन की गोली, कंडोम आदि वितरित करना भी इनका ही काम है।
एएनएम का काम होता है गर्भवती मांओं की जाँच करना, गर्भावस्था और प्रसव के दौरान देखभाल, सुरक्षित गर्भपात, एनीमिया रोकथाम, नवजात शिशु के स्वास्थ्य का ध्यान रखना, परिवार नियोजन की सलाह देना, टीकाकरण करना और सरकार की सभी जच्चा-बच्चा योजनाओं की निगरानी करना और इलाक़े की सभी आशाओं के साथ मिलकर काम करना।
आशा और एएनएम के ये सभी काम अभी भी जारी हैं, इन्हें जच्चा-बच्चा का ध्यान रखना और ख़ासकर गर्भवती मांओं के प्रसव में सहायता, जाँच आदि अभी भी करनी पड़ रही है। पर इसके साथ इन्हें कोविड से जुड़े अन्य कई काम भी करने पड़ रहे हैं।
आशा कार्यकर्ताओं को सरकार के अलग अलग भागों द्वारा गठित कोविड समितियों में शामिल किया है, इन्हें घर-घर जाकर कोविड की जानकारी देनी है, मौत के आँकड़े लेने हैं, बुखार या अन्य लक्षण वाले लोगों की निगरानी करनी है, लोगों का टीकाकरण सुनिश्चित करना है, टीकाकरण के आँकड़े रखने हैं और गाँव में मास्क बाँटने आदि जैसे कई काम भी इनके ही हैं।
"सबसे ज़्यादा ख़तरे का काम तो हम करते हैं, सबके घर जाना, कोविड मरीज़ के घर जाना उनको सब ठीक से समझाना, अपना ध्यान रखना, कोविड रिपोर्ट इंटरनेट पर रिपोर्ट भेजना," कुसुम ने कहा।
"अब नया काम भी करना पड़ता है कोरोना का, सर्वे करना, रोज़ रिपोर्ट देना साथ में गर्भवती मांओं का काम भी हम देख रहे हैं," आशा कार्यकर्ता नीरज ने कहा।
एएनएम के पास कोविड की मौतों और टीकाकरण के आँकड़े रखने के साथ कोविड टीकाकरण का सबसे अहम काम, टीका लगाना, भी इनकी ज़िम्मेदारी है। एएनएम कार्यकर्ता केंद्रों में जनवरी 2021 से लगातार टीकाकरण कर रही हैं।
"काम इतना ज़्यादा हो गया है कि खाने-पीने की भी ठीक से फ़ुरसत नहीं मिल रही है, वक़्त-बेवक्त फ़ील्ड पर जा कर काम करना पड़ता है," मंजु, 30, जो हपुर में दो साल से आशा का काम कर रहीं हैं, ने कहा।
"एएनएम के ऊपर इस समय सबसे ज़्यादा दायित्व है, वो अपने परिवार तक को भूल चुकीं हैं, वो यहाँ अस्पताल में सेवा करने में लगी हुई हैं," ग़ाज़ियाबाद के भोजपुर गाँव की एलएचवी (लेडी हेल्थ विज़िटर या महिला स्वास्थ्य आगंतुक) पूनम शर्मा, 46, जो 33 साल तक एएनएम का काम कर रही थी और पिछले तीन साल से एलएचवी बनी हैं, ने कहा, "कोई अपना घर परिवार नहीं देख रहा है," पूनम बताती हैं।
सुरक्षा के सही उपकरण उपलब्ध नहीं
इन कार्यकर्ताओं को घर-घर जाना पड़ रहा है, कोविड के मरीज़ों से मिलना पड़ रहा है मगर सरकार ने इसमें इनकी मदद ना के बराबर की है। इन्हें सुरक्षा उपकरण के नाम पर महीने में एक-दो बार मास्क और दस्ताने और सैनीटाईज़र की छोटी शीशी दी जा रही है।
"कभी दो मास्क या दस्ताने दे देते हैं, छोटा सा सैनीटाईज़र दे देते हैं, और कहते हैं कि बस इसी से काम चलाओ," मंजु आशा वर्कर ने कहा, "कहते है कि अपनी सुरक्षा पर तुम खुद भी तो कुछ ख़र्च करोगे, अब हम अपने परिवार को देखें, उनपर ख़र्च करें या इस सब पर।"
साथ ही अपना काम ठीक से कर पाने के लिए भी सरकार से इन्हें ज़रूरी उपकरण नहीं मिले हैं। "बुखार के मरीज़ तो हर घर में हैं पर कोई बताता ही नहीं है," मंजु ने कहा, "हमारे पास उचित उपकरण नहीं हैं। अगर हमें औक्सीमीटर या थर्मा गन दी जाए तो हम कुछ जाँच कर भी पाएँ, ऐसे कैसे पता चलेगा, ये सब हो तो हम खुद भी रक्षा कर पाएँगे, लेकिन ये सुविधा तो कम से कम होने चाहिए।"
इनपर अपनी सुरक्षा के साथ-साथ परिवार के स्वास्थ्य की भी चिंता है, निरंतर डर है कि इनकी वजह से इनके घर में किसी को कोरोना ना हो जाए।
साल 2020 में द लैन्सेट पत्रिका में छपे एक अर्टीकल के अनुसार फ़्रंटलाइन स्वास्थ्य्कर्मियों को ना ही सिर्फ़ वाइरस से जान का ख़तरा और इसका डर होता है पर इनके मानसिक स्वास्थ्य को भी उतना ही ख़तरा होता है, साथ ही परिवार वालों को संक्रमित करने का डर। इन्हें समाज में भेद-भाव का सामना भी करना पड़ता है क्योंकि आस-पड़ोस के लोगों को इनसे संक्रमित होने का डर रहता है।
"हमारे घर में अपने बच्चों के लिए डर लगता है, हमारी वजह से उनको संक्रमण हो गया तो क्या करेंगे, बहुत डर लगता है," आशा वर्कर नीरज ने कहा। "मेरे पति कहते हैं कि नौकरी छोड़ दो, अगर मुझे या किसी को कोरोना हो गया काम पर जा जा कर, तो जितना मिलता है उससे तो इलाज के पैसे भी पूरे नहीं पड़ेंगे। ख़तरा इतना है, और पैसा कुछ ख़ास है नहीं," आशा कार्यकर्ता मंजु ने कहा।
यहाँ ये भी कहा गया कि इन्हें ना सिर्फ़ स्वास्थ्य्कर्मियों बल्कि उनके जीवन की अन्य भूमिकाओं जैसे अभिभावक, पति-पत्नी या संतान के रूप में भी देखना ज़रूरी है। इन्हें ना ही सिर्फ़ नौकरी पर ध्यान देना होता है पर परिवार की अन्य जिम्मेदारियाँ जैसे बच्चों की पढ़ाई का ध्यान भी रखना होता है।
कम आय, कोई छुट्टी नहीं और छुट्टी लेने पर पैसे कटते हैं
"हमें सब मिलाकर हर महीने रुपये 2,200 मिलते हैं, आज कल तो सिर्फ़ रुपये 2,000 ही मिल पा रहे हैं," आशा कार्यकर्ता, रेखा सिंह, 32, ने कहा जो 10 साल से हापुड़ के प्रतापपुर गाँव में आशा का काम कर रही हैं।
उत्तर प्रदेश में एक आशा कर्मचारी की आय अन्य कई राज्यों की तरह ऊपरी इंसेंटिव या प्रोत्साहन राशि पर निर्भर है। ये प्रोत्साहन राशि कई चीजों पर निर्भर होती है, टीकाकरण के लिए, गर्भवती महिला की जाँच, उसके प्रसव के लिए अस्पताल ले जाना, जच्चा या बच्चा की मृत्यु की सूचना आदि। जितने टार्गेट या लक्ष्य पूरे होते हैं हर आशा को उसी के अनुसार पैसा दिया जाता हैं।
इस तरह उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक आशा वर्कर की आय रुपये 1,500 से ले कर रुपये 4-5 हज़ार तक भी हो सकती है, हालाँकि ज़्यादातर आशाओं की औसत आय रुपये 2000-3000 तक होती है।
"इतने पैसों में काम नहीं होता, जितना काम है उसके हिसाब से पैसा तो ठीक होना चाहिए। हम यही चाहते हैं सरकार से कि अगर मेहनत कर रहे हैं तो पैसा अच्छा मिलना चाहिए," मंजु ने कहा।
कोविड के दौरान आशा कार्यकर्ताओं को अपनी सेवाओं के लिए हर महीने अतिरिक्त रुपये 1,000 दिए जाने का प्रावधान है, यानी प्रतिदिन लगभग रुपये 33। लेकिन उन्हें अभी तक ये पैसा नहीं मिला है।
"कोविड के लिए कोई ऊपर से राशि नहीं मिली है, कोविड हो जाएगा तो कोई सरकार की तरफ़ से सहायता नहीं मिलेगी, बाक़ी जो मरीज़ या गर्भवती ले जाने पर पैसा मिलता था वो भी कम हो गया है, जिन योजनाओं के तहत पैसा मिलता था वो भी बंद हो गयी हैं, अगर सब बंद होता जाएगा तो पैसा किस बात का मिलेगा," कुसुम ने कहा।
"पैसे पहले ही इतने कम हैं उसके ऊपर से छोटा छोटा ख़र्च भी अपनी जेब से करना पड़ता है मास्क, सैनीटाईज़र, अगर कोई आँकड़े पूरे इलाक़े के लिए बनाने को कहा है तो रजिस्टर भी अपने पैसों से लेना पड़ता है, कहीं भी जाना है तो ऑटो का पैसा या कोई छोड़ेगा तो पेट्रोल ये सब ख़र्च का कौन ध्यान रखता है," आशा वर्कर अनीता शर्मा, 40, ने कहा जो पिहकले 8 साल से हपुर के प्रतापपुर गाँव में ये काम कर रही हैं।
साथ ही इनकी छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं है, इतने काम के बीच भी अगर ये 10 दिन से ज़्यादा की छुट्टी लें, तो इनके पैसे काटे जाते हैं।
"छुट्टी तो एक दिन की भी नहीं है, 24 घंटे में जब फ़ोन आ जाए। कोविड के साथ हमारे और काम भी तो हैं जैसे प्रसव वग़ैरह, गर्भवती माओं का चेकअप करना अल्ट्रासाउंड काराना, तो ये काम तो है ही, इसके साथ कोविड का काम भी है अब," रेखा ने कहा।
"तलवार की धार पर है हमारा पूरा स्टाफ़, सब ख़तरे का काम कर रहे हैं, इसके बावजूद हमारा कोई पैसा भी नहीं बढ़ाया गया है" पूनम ने बताया, "एएनएम और एलएचवी (लेडी हेल्थ विज़िटर या महिला स्वास्थ्य आगंतुक) पर इस समय बहुत ज़्यादा कार्यभार है, हमारे लिए कोई छुट्टी या आराम नहीं है। हम में से पिछले लाक्डाउन से किसी ने भी कोई छुट्टी नहीं देखी है।"
"सब लोग अपने घरों में हैं, सुरक्षित हैं, पर हमें तो बाहर जाना पड़ रहा है, हमें भी कोरोना का ख़तरा है, हमें तो कोई भी छुट्टी नहीं मिलती, किसी भी वक़्त बुला सकते हैं," नीरज ने कहा।
सरकारी आश्वासन और समर्थन की कमी
आशा कार्यकर्ता समय समय पर हड़ताल और विरोध प्रदर्शन करती रही हैं, इनकी माँगों में बेहतर और स्थिर आय और काम करने के लिए बेहतर सुविधाएँ सबसे अहम रहे हैं। कोविड की दूसरी लहर के दौरान 24 मई 2021 को देश भर से आशा कार्यकर्ताओं ने हड़ताल करी, सुरक्षा के सही उपकरण जैसे पीपीई किट आदि और बेहतर आय इसमें मुख्य माँगे थी। इन्होंने कहा कि रुपये 5000 का कोविड राहत पैकेज और रुपये 25000 का मेडिकल मुआवज़ा, ज़रूरत अनुसार उचित मात्रा में मास्क, दस्ताने, सैनीटाईज़र आदि और कोविड की पहली लहर में जिन आशा कार्यकर्ताओं की मौत हुई उनके लिए रुपये 50 लाख का बीमा मुआवज़ा दिया जाए।
मार्च 2020 में प्रधान मंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत ड्यूटी के दौरान कोविड-19 से मरने वाले सभी फ़्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मियों के लिए 50 लाख रुपए के बीमा का वादा किया गया था, पर दूसरी लहर के दौरान मार्च 2021 में ये योजना समाप्त हो गयी और सरकार ने इसे आगे नहीं बढ़ाया। हालाँकि एक नयी योजना की बात की गयी पर अधिक जानकारी नहीं दी गयी।
ये बीमा भी जीवन बीमा था, जो मरने के बाद मिलता है, स्वास्थ्य बीमा जो इलाज के दौरान आर्थिक सहायता दे, वो अभी भी मौजूद नहीं है।
"हमारा सबसे बड़ा मुद्दा है कि अगर हमें काम के दौरान कुछ हो जाए, हम मर जाएँ तो इस बात की गारंटी होनी चाहिए कि हमारे बच्चों की देख रेख अच्छे से हो सके। हम काम करने से मना नहीं कर रहे, जब जब बुलाएँगे हम तब काम करेंगे लेकिन सरकार हमारी ज़िम्मेदारी ले," मंजु ने कहा।
काम बढ़ने के बावजूद ज़्यादातर आशा और एएनएम कार्यकर्ता, काम के भार से नहीं बल्कि अपनी कम आय और इनके काम के प्रति सरकार की उदासीनता से परेशान हैं, कई कहती हैं कि इन्होंने अपना काम पैसों के लिए करना कब का बंद कर दिया है।
"हम तो सिर्फ़ समाज सेवा सोच कर काम कर रही हैं," आशा कार्यकर्ता कुसुम ने कहा, "पर ऐसे कब तक चलेगा?"
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