नई दिल्ली/मुज़फ्फरनगर, बिहार: उच्त्तम न्यायालय ने मई 2020 की एक याचिका की सुनवाई के दौरान सभी राज्य, जहां 'एक देश एक राशन कार्ड' योजना लागू नहीं हुई थी, की सरकारों को निर्देश दिया कि यह योजना देश भर में 31 जुलाई, 2021 तक लागू की जाए। उच्चतम न्यायालय की दी गयी समय सीमा के बाद देश के सभी बचे हुए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने यह योजना लागू की है ताकि प्रवासी मज़दूर एक ही राशन कार्ड को देश भर में इस्तेमाल कर सकें। लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी योजना लागू करने के लिए जिन मूलभूत व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करना ज़रूरी है, भारत में वह अभी भी अस्त-व्यस्त हैं।

इस योजना को लागू करने में अग्रणी राज्य, जैसे बिहार, योजना को लागू करने के बाद भी कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं जिसमे राशन दुकानों की पॉइंट ऑफ़ सेल (पीओएस) मशीन, राशन कार्ड और आधार कार्ड की लिंकिंग, भ्रष्टाचार और मज़दूरों के सही आँकड़े न होना शामिल है। ऐसे में देश के सभी राज्यों में इस योजना के प्रभावी क्रियान्वयन में राज्यों से पलायन कर रहे मजदूरों के सही आँकड़ों की कमी सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत में आठ साल पहले लागू हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून (एनएफ़एसए), 2013, के अंतर्गत 2019 में शुरू की गयी 'एक देश एक राशन कार्ड' योजना का मुख्य मकसद लाभार्थियों को एक ही राशन कार्ड के ज़रिये देश के किसी भी कोने में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराना और देश से भुखमरी कम करना है। हमने बिहार के उदाहरण के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि देश भर में 'एक देश एक राशन कार्ड' योजना लागू करने में क्या क्या चुनौतियाँ सामने आ सकती हैं।

ज़रूरी आँकड़ो और डिजिटल मशीनों की कमी

'एक देश एक राशन कार्ड' योजना का लक्ष्य पलायन करने वाले लोगों को भी देश के किसी भी राज्य में एक ही कार्ड से रियायती दाम पर सरकारी राशन दुकान से राशन की खरीदी सुनिश्चित करना है। मई 2020 में केंद्र सरकार ने कहा था कि सभी राशन कार्ड मार्च 2021 तक पूरी तरह से पोर्टेबल होंगे, और इस व्यवस्था के 67 करोड़ लाभार्थी एक राशन कार्ड के माध्यम से देश भर में कहीं भी सरकारी राशन दुकान से राशन खरीद सकेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ है।

'एक देश एक राशन कार्ड' योजना को लागू करने करने की बड़ी चुनौती होगी हर राज्य से पलायन कर रहे मजदूरों के सही आँकड़ों की कमी और 28% सरकारी राशन की दुकानों में इन कार्ड को सत्यापित करने के लिए ज़रूरी मशीन की कमी।

इन्हीं सब कारणों की वजह से भारत की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था से लगभग 10 करोड़ लोग ग़ायब हैं, यानी इन्हें रियायती दाम पर उचित मात्रा में सरकारी दुकानों से राशन नहीं मिल पाता है।

उत्तर मध्य बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के मुसहरी खंड में रहने वाली 70 साल की भागृत देवी भी इन्हीं में से एक हैं।

बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के मुसहरी खंड में रहने वाली 70 साल की भागृत देवी जिनका आज तक राशन कार्ड नहीं बन सका है। फोटो: साधिका तिवारी

"सालों से कह रहे हैं कि राशन कार्ड बन रहा है, बन रहा है तो फिर है कहाँ? जो हमारा था वो भी हमसे छीन लिया और हमको मुट्ठी भर चना भी नहीं मिला," भागृत देवी कहती हैं। "थोड़े से केरोसीन के लिए भी शहर जा कर रुपये 50 में खरीदना पड़ता है," उन्होंने कहा। भागृत देवी ने पिछले कई सालों में कई बार राशन कार्ड के लिए अर्ज़ी डाली पर आज तक न ही इनका कार्ड बना और न ही इन्हें कोई राशन मिला है।

भागृत देवी की तरह ही उनके गाँव के करीब एक दर्ज़न लोगों को भी पिछले एक दशक में ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा है। राशन कार्ड का नहीं बन पाना, राशन नहीं मिलन या कम मात्रा में मिलना, बायोमेट्रिक जांच काम ना करना, राशन विक्रेता की गुंडागर्दी इनके लिए हर बार की समस्याएं हैं।

मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के मुसहरी खंड के लोग जिनमें से कई के राशन कार्ड नहीं बनें हैं और जिनके बन चुके हैं उन्हें भी उचित दाम पर उचित मात्रा में राशन नहीं मिलता है। फोटो: साधिका तिवारी

हालांकि बिहार फ़रवरी 2014 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून सबसे पहले लागू करने वाले राज्यों में शामिल था, इसके बावजूद यह राज्य आज भी खाद्य व्यवस्था से जुड़ी मूलभूत चुनौतियाँ जैसे अनाज की खराब क्वालिटी, अनाज का थोक घपला और भ्रष्टाचार से जूझ रहा है।

सतर्क नागरिक संगठन की संस्थापक, अंजली भारद्वाज ने एक साक्षात्कार का मनना है कि सिर्फ 'एक देश एक राशन कार्ड' योजना लागू कर हालात सुधर जाने की उम्मीद करना गलत है क्योंकि इसके लिए अनाज वितरण व्यवस्था के सार्वभौमीकरण और बड़े स्तर पर हो रहे गरीब परिवारों के अपवर्जन को ख़त्म करना बहुत ज़रूरी है।

फ़िलहाल सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत 5,00,000 सरकारी राशन दुकानों के ज़रिए 80 करोड़ से भी ज़्यादा लोगों को रुपए 1-3 प्रति किलो के रियाती दाम पर अनाज उपलब्ध कराती है। हर परिवार को मिलने वाले राशन की मात्रा परिवार के सदस्यों पर निर्भर करती है और यह मात्रा परिवार के मुखिया को दिए गए राशन कार्ड पर लिखी होती है।

यह राशन कार्ड, व्यक्ति के 'आधार' के साथ डिजिटल तरीक़े से जुड़ा हुआ होता है। वर्तमान प्रणाली के अनुसार अगर राशन योजना का लाभार्थी पलायन करता है, तो उसे नयी जगह पर अर्ज़ी डाल कर नया कार्ड बनवाना पड़ेगा।

'एक देश एक राशन कार्ड' योजना यह नया कार्ड बनवाने की ज़रूरत ख़त्म करना चाहती है। यानी नयी जगह पर पलायन करने पर भी वही पुराना राशन कार्ड इस्तेमाल किया जा सकता है। हालाँकि यह नया कार्ड भी आधार से लिंक किया जाएगा।

अगर हम उदाहरण के तौर पर बिहार जैसे राज्य को देखें, तो यह साफ़ है कि एनएफ़एसए के तहत मूलभूत सुविधाओं और व्यवस्थाओं की कमी नज़र आती है जो कि 'एक देश एक राशन कार्ड' योजना को लागू करने के लिए ज़रूरी है।

बिहार में एनएफ़एसए के तहत मूलभूत व्यवस्थाएँ आज भी ग़ायब

अप्रैल 2020 तक बिहार 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सूची में जुड़ गया था जो 'एक देश एक राशन कार्ड' के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस की पूर्ण पोर्टेबिलिटी सुनिश्चित कर रहे थे। यानी राज्य की सभी सरकारी राशन की दुकानों को ऑटोमेटेड या स्वचालित बनाना था जिसके लिए सभी लेन-देन के लिए इलेक्ट्रॉनिक पॉइंट ऑफ़ सेल डिवाइस लगाए जाने थे और सभी राशन कार्डों को परिवार के कम से कम किसी एक सदस्य के आधार नम्बर से जोड़ा जाना था।

पहले लॉकडाउन के समय जब देश भर से प्रवासी मज़दूर बिहार वापस लौटे और राशन की माँग बढ़ने लगी, राज्य की पहले से ही नाज़ुक सार्वजनिक वितरण प्रणाली ढह गयी, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है।

"हमेशा से जो लोग बेहतर राशन ख़रीद सकते थे वो कभी भी पीडीएस दुकानों से राशन नहीं ख़रीदते थे क्योंकि इन दुकानों पर राशन की गुणवत्ता ज़ाहिर तौर पर ख़राब है," राइट टू फ़ूड कैम्पेन, बिहार, से जुड़े कार्यकर्ता, प्रभाकर ने बताया। पर लॉकडाउन के वक़्त जीवनयापन के ज़रिए बंद होने और आय में तीव्र गिरावट की वजह से इन लोगों ने भी इन्हीं दुकानों से मजबूरन राशन ख़रीदना शुरू कर दिया।"

पीडीएस के तहत मिल रहे अनाज की गुणवत्ता काफ़ी ख़राब है। मुज़फ़्फ़रपुर के विशतपुरा गाँव की राशन दुकान के बहार गेहूं जिसमें कीड़े, कचड़ा और गंदगी देखें जा सकते हैं। फोटो: साधिका तिवारी

इसी समय के दौरान राशन कार्ड की पोर्टेबिलिटी की बात शुरू हुई ताकि प्रवासी मज़दूर किसी भी राज्य में उसी कार्ड से राशन ख़रीद सकें।

बिहार सरकार की वेबसाइट के अनुसार राज्य में 4,45,973 राशन कार्ड, कुल संख्या के लगभग 2% पोर्टेबल हैं। "हमें नहीं पता यह कार्ड कैसे दिखते हैं, यह कब बनाए गए, कैसे बनाए गए, इसके बारे में राज्य सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी है," प्रभाकर ने कहा, "हम यह अनुमान लगा रहे हैं कि शायद लॉकडाउन के दौरान जो कार्ड बाँटे गए हैं वो पोर्टेबल हैं, पर अगर ऐसा है भी तो इनके लाभार्थियों को इसकी कोई जानकारी नहीं है।"

अन्य विशेषज्ञ भी जिनसे हमने बात की उन्होंने ने भी यही कहा कि उन्हें नहीं पता यह कार्ड कैसा दिखता है, यह सामन्य कार्ड से कैसे अलग हैं या ऐसा कार्ड बनवाने के लिए कैसे और कहाँ अर्ज़ी डालनी है। "यह पूरी प्रक्रिया साफ़ नहीं है, पोर्टेबिलिटी की प्रक्रिया से जुड़ी कोई स्पष्टता नहीं है," ग्रामवाणी के संस्थापक, आदितेश्वर सेठ ने कहा।

विशेषज्ञों का कहना है कि राशन कार्ड को पोर्टेबल बनाने से कोई ख़ास सुधार नहीं आएगा। "ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर अकेले पलायन करते हैं जबकि उनके परिवार अपने गाँवों में ही रहते हैं," विकास अर्थशास्त्री और राइट टू फ़ूड कार्यकर्ता, ज्याँ द्रेज ने कहा। "ऐसा मज़दूर ज़्यादातर अपना कार्ड अपने परिवार के लिए घर पर छोड़ कर ही जाता है," उन्होंने बताया।

साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली हर राज्य के लिए अलग होती है, हर राज्य के दाम, अनाज की माँग और आपूर्ति अलग होती है। "हम यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि प्रवासी मज़दूर और उसकी माँग जिस राज्य में होगी, उस राज्य में इस माँग की आपूर्ति भी होगी," द्रेज ने पूछा।

"प्रवासी मज़दूरों की मदद तो तब होगी जब हमें यह पता होगा कि यह हैं कौन," प्रभाकर ने कहा, "सरकार के पास प्रवासी मज़दूरों से जुड़े कोई भी पुख़्ता आँकड़े मौजूद नहीं हैं, लॉकडाउन के दौरान पहले 18 लाख कहा, फिर 30 लाख कहा, और यह भी सिर्फ़ अनुमान ही थे।"

इन सब वर्तमान ख़ामियों को देखते हुए 'एक देश, एक राशन कार्ड' जैसी योजना को लागू करना मुश्किल नज़र आता है, "पोर्टेबिलिटी तो बाद में आती है, फ़िलहाल तो मूलभूत व्यवस्था भी ठीक नहीं है," प्रभाकर ने कहा।

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।