नयागढ़, ओडिशा: कई अध्ययन और रिपोर्ट्स से पता चलता है कि स्थानीय समुदाय संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाते है, कई बार तो वह सरकारी एजेंसियों से भी ज्यादा असरकारक साबित होते हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण है, उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) में कट रहे जंगलों का विरोध करने वाली महिलाओं का चिपको आंदोलन या फिर, किस तरह से अरुणाचल प्रदेश की एक जनजाति ने खत्म होने के कगार पर पहुंच गए बुगुन लियोइक्ला गीत की तरह आवाज निकालने वाले पक्षी की प्रजाति को विलुप्त होने से बचाया।

संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत विक्टोरिया ताउली-कोपुज़ ने 2018 में अपनी एक स्टडी में बताया था कि संरक्षण में समुदाय का नेतृत्व कितना असरकारक रहता है, इसका शीर्षक था, हाशिये के लोगों द्वारा संरक्षित क्षेत्र, "बहुत से (आदिवासियों व स्थानीय समुदाय) का प्रकृति के साथ भाषा, विश्वास, प्रथाओं के माध्यम से एक अटूट रिश्ता होता है और प्रकृति के लिए सम्मान और देखभाल करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।"

ओडिशा की आदिवासी महिलाओं का मामला भी कुछ ऐसा ही है, जो कि दशकों से तस्करों से जंगलों को बचाने के लिए स्वेच्छा से रखवाली कर रही है। उनके पास हथियार के नाम पर एक छड़ी होती है, वह तीन से छह के ग्रुप में स्थानीय जंगल में लकड़ी चोरों को भगाने के लिए गश्त करती है। यदि वह किसी को लकड़ी चुराते पकड़ती है, तो उसे चेतावनी देती है, तस्करी के लिए जंगली उत्पाद को जब्त कर लेती है। स्थिति यदि ज्यादा खराब होती है, तो वह चोरों को या तो गांव की सभा में लेकर आती और सार्वजनिक रूप से माफी मंगवायी जाती है, या फिर जुर्माना लगाया जाता है या फिर स्वयं सेवी संस्था के माध्यम से पुलिस कार्यवाही करायी जाती है।

इसे थेंगापल्ली बोला जाता है। प्रथा है कि हर घर से बारी बारी सामुदायिक जंगल में छड़ी लेकर गश्त करेंगे (थेंगा का अर्थ होता है छड़ी,और पल्ली का मतलब होता है, बारी)।

तस्करी कम हुई तो जंगल का हुआ पुनर्जीवन'

थेंगापल्ली 1970 के शुरुआत में ओडिशा के नयागढ़ जिले में शुरू हुआ था, लेकिन यह 1990 के दशक में तब लोकप्रिय हुआ जब महिलाएं भी पुरुषों के साथ जंगलों की रक्षा के लिए आगे आयी।

लेकिन आज नयागढ़ जिले के कम से कम 300 गांवों की महिलाएं जंगल की चौकसी की ज़िम्मेदारी उठा रही हैं। जिले के गुंडुरीबाड़ी गांव में वन संरक्षण समिति ने 500 एकड़ जंगल को फिर से आबाद कर दिया क्योंकि तस्करी की वजह से यहां से लकड़ी और जंगली उत्पाद बहुत कम रह गए थे।

महिलाओं द्वारा लाए जा रहे बदलाव पर बात करते हुए नयागढ़-खोरदा के जंगल के आदिवासी समुदाय पर अध्ययन कर रहे पर्यावरण कार्यकर्ता मानस मिश्रा कहते है, "दस साल पहले लुप्त हुई बड़ी भारतीय गिलहरी को भी अब हम नयागढ़ में देख सकते हैं। यहां तक कि मिट्टी में नमी बढ़ रही है।"

थेंगापल्ली अभियान अब दूसरे जिलों में भी फैल रहा है। वर्तमान में पुनासिया मयूरभंज जिलें में भी कई जगह इस तरह के अभियान को महिलाओं ने चला कर जंगल में तस्करी को रोका है, हथियार के तौर पर एक छड़ी के साथ उन्हें रात में गश्त करनी पड़ती है। महिलाओं को मयूरभंज के सिमिलिपाल टाइगर संरक्षित जंगल में वन विभाग की ओर से अतिरिक्त सुरक्षा उपलब्ध करायी जाती है।

संरक्षित क्षेत्र में वसुंधरा प्रोजेक्ट के साथ काम कर रहे धनेश्वर महतो बताते हैं, "वन विभाग दो से पांच वनरक्षक ही तैनात करता है। जबकि, यह कमेटी दिन भर में कम से कम तीन स्वयंसेवकों को जंगल में गश्त के लिए भेजती है।"

इस तरह का चलन अब सीमा को भी लांघ कर झारखंड राज्य तक पहुंच गया है और अब इसका अध्ययन इंग्लैंड के हैम्पशायर के स्कूलों में भी हो रहा है

पुनासिया, मयूरभंज में जंगल। फोटो : तज़ीन कुरैशी

गैर सरकारी संगठन वसुंधरा (ओडिशा में वन संरक्षण के तरीकों का रिकार्ड तैयार कर रही है), की कार्यकारी निदेशक वाई गिरी राव बताती है, "जंगल पर महिलाओं की निर्भरता बहुत ज्यादा है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के लिए प्राकृतिक संसाधन मायने रखते हैं।"

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, "यदि जंगली इलाका कम हो जाता है तो महिलाओं को रोजमर्रा की जरूरतों के लिए अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ेगी। "

इस निर्भरता की वजह से सुदामणि महाकुड को अपने गांव पुनासिया में थेंगापल्ली चलाने के लिए प्रोत्साहित किया। "यदि मुझे भोजन बनाने के लिए ईंधन चाहिए, तो मैं जंगल से पत्ते व टहनियां ले सकती हूं। यदि मुझे खाने के लिए भोजन चाहिए तो, जंगल से साग और कंद मिल जाते हैं। कुछ पौधों के औषधीय गुण भी होते हैं। यहां तक कि जंगलों में मवेशियों के लिए भी चारा उपलब्ध रहता है। अब इससे ज्यादा और क्या कारण हो सकता है कि मैं जंगलों का संरक्षण करूं? मेरा तो अस्तित्व ही जंगलों से हैं," दो दशकों से जंगलों की रखवाली कर रही 65-वर्षीय बुजुर्ग महिला जंगलों के प्रति अपने लगाव को दर्शाते हुए कहती हैं।

जैसे ही महिलाओं ने स्थानीय जंगलों की सुरक्षा करना शुरू किया, तस्करी कम होती गयी। मयूरभंज जिले में गैर सरकारी संस्था संग्राम चलाने वाली संजुक्ता बास कहती हैं, "यदि पुरुषों का ग्रुप तस्करों के सामने आता है तो, अक्सर (कई ऐसी घटनाएं हुई) झगड़े की संभावना रहती है। महिलाओं के साथ जब ऐसी स्थिति आती है तो सिर्फ बहस होती है। तस्करी के ज्यादातर मामलों में, तो आस पास के ग्रामीण शामिल होते हैं, और वह महिलाओं का सामना करने से बचते हैं।"

मयूरभंज की 40-वर्षीय थेंगापल्ली स्वयंसेवक वनरक्षक सबिता नाइक ने बताया कि गश्त पर पुरुषों का एकाधिकार तोड़ना उनके लिए कई सारी दिक्कत भी पैदा करता है, "जब भी मैं पुलिस स्टेशन जाती हूं, मुझ पर शरारती लड़की की तोहमत लगा दी जाती है। माता पिता को मेरे लिए दूल्हा खोजने में मुश्किल आ रही है। लेकिन इस सब से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं जंगल की बातें सुन कर बड़ी हुई हूं, अब मैं अपने सामने जंगल को खत्म होते हुए देख नहीं सकती।"

उन्होंने बताया कि जंगल में गश्त के नियम और समय आपसी सहमति से तैयार करते हैं, जिससे घरेलू कामकाज भी प्रभावित न हो। यदि तीन महिलाओं का समूह सुबह छह से नौ बजे की गश्त के लिए जाता है, तो दूसरा समूह नौ से 12 बजे गश्त पर निकलता है। गश्त का यह सिलसिला शाम के नौ या 11 बजे तक जारी रहता है। जंगल से उपज लेने के भी दिशा निर्देश निर्धारित किए गए हैं।

मसलन ग्राम समिति से मंजूरी मिलने के बाद ही कोई ग्रामीण जंगल से बांस ले सकता है।

समुदाय को वन अधिकार का इंतजार

इन महिलाओं ने जंगलों का प्रबंधन वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) से पहले ही करना शुरू कर दिया था। यह अधिनियम समुदाय को जंगल की जमीन का उपयोग व प्रबंधन पारंपरिक तरीके से करने का अधिकार देता है। तीन साल पहले ओडिशा सरकार ने इंदिरा आवास योजना (जो कि अब प्रधानमंत्री आवास योजना के नाम से जानी जाती है) के तहत जंगल के अधिकार प्राप्त लोगों को घर देने की घोषणा की थी।

"अब जंगल को संरक्षित करने वालों को मनरेगा के तहत भी काम मिल रहा है," राव बताती है कि ओडिशा में कैसे अधिनियम और थेंगापल्ली ने मिल कर जंगल संरक्षण के अभियान को प्रेरित किया।

वह और बेहतर करने के लिए प्रेरित हो सकते थे पर अभी तक उन्हें सामुदायिक जंगल अधिकार (सीएफआर) नहीं दिया गया है। वसुंधरा ने जो आंकड़े जुटाए उसके मुताबिक, ओडिशा के कम से कम 32,570 गांव सीएफआर के दायरे में आ सकते हैं लेकिन 2,800 आवेदन को मंजूरी मिली है और 2,300 को अधिकार दिया गया है।

हालांकि अधिकारियों का कहना है कि देरी की वजह अधूरे दस्तावेज हैं। सामाजिक कार्यकर्ता भाग्यलक्ष्मी का कहना है कि प्रशासन कठोर रवैया अपना रहा है। "हम उन लोगों के अधिकार की बात कर रहे हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों से जुड़े रहे हैं। ऐसा हो सकता है उनके पास इसके दस्तावेज न हो। इसमें से बहुत को कानूनी औपचारिकताओं की जानकारी नहीं है इसलिए उन्हें मार्गदर्शन की जरूरत है," उन्होंने समझाया।

तस्करी में कमी आने से कई महिलाओं ने गश्त के दौरान छड़ी रखना भी छोड़ दिया है। फोटो: तज़ीन कुरैशी

तस्करी में कमी आने से कई महिलाओं ने गश्त के दौरान छड़ी रखना भी छोड़ दिया है। फोटो: तज़ीन कुरैशी

राव कहती हैं, जंगलों की सुरक्षा और भी अच्छी तरीके से हो सकती है अगर इन समुदायों को सीएफआर मिल जाये क्योंकि इन समुदायों की वन पारिस्थितिक को लेकर समझ काफी निष्पक्ष और गहन है। और महाकुड़ कहते हैं, कई लोगों के लिए जंगल सत्ता का भाग हो सकता ह पर हमारे लिए ये जन-जीवन का साधन है । हम अपनी ज़िन्दगी जंगल के बिना नहीं सोच सकते।

अगर रिपोर्ट्स की माने तो एक आश्वस्त करने वाली बात यह है की जब भी किसी अभियान से औरतें जुड़ती हैं तो परिणाम अपने आप नज़र आने लगते हैं।

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तज़ीन कुरैशी ओडिशा में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101रिपोर्टर्स की सदस्य हैं।यह लेख १०१रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।