हिरासत में मौत के मामलों में यूपी नंबर 1, पिछले 3 साल में 1318 लोगों की हुई मौत
उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा देश में हुई हिरासत में मौत के मामलों का करीब 23% है।
लखनऊ। 'यूपी नंबर 1', हाल के दिनों यह लाइन और इससे जुड़े पोस्टर-विज्ञापन बहुतायत में देखने को मिल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अलग-अलग पहलुओं पर नंबर वन होने की कहानियां इसमें बताई जाती हैं, लेकिन इन कहानियों के इतर प्रदेश कुछ ऐसे मामलों में भी नंबर वन है जिनका जिक्र नहीं होता, जैसे - हिरासत में मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश नंबर वन है।
इसी 27 जुलाई को लोकसभा में पूछा गया कि देश में कितने लोगों की मौत पुलिस और न्यायिक हिरासत में हुई है। इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के आंकड़े पेश किए। इन आंकड़ों के मुताबिक, हिरासत में मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। उत्तर प्रदेश में पिछले तीन साल में 1,318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हुई है।
एनएचआरसी के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में 2018-19 में पुलिस हिरासत में 12 और न्यायिक हिरासत में 452 लोगों की मौत हुई। इसी तरह 2019-20 में पुलिस हिरासत में 3 और न्यायिक हिरासत में 400 लोगों की मौत हुई। वहीं, 2020-21 में पुलिस हिरासत में 8 और न्यायिक हिरासत में 443 लोगों की मौत हुई है।
पिछले तीन साल में हुई इन मौतों को जोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में कुल 1,318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हुई है। उत्तर प्रदेश का यह आंकड़ा देश में हुई हिरासत में मौत के मामलों का करीब 23% है। देश में पिछले तीन साल में पुलिस और न्यायिक हिरासत में 5,569 लोगों की जान गई है।
प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगा हुआ जिला है उन्नाव। इसी साल 21 मई को उन्नाव के बांगरमऊ कस्बे में एक 18 साल के युवक की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। दरअसल यूपी पुलिस के दो सिपाही कोरोना कर्फ्यू का पालन कराने गए थे और फैज़ल को सब्जी का ठेला लगाने के जुर्म में थाने लेकर चले गए। पुलिस हिरासत में ही फैज़ल की तबीयत खराब हुई और फिर मौत हो गई। मामले में पुलिस के दो सिपाहियों और एक होम गार्ड पर मुकदमा दर्ज हुआ है।
इस घटना को याद करते हुए फैज़ल के भाई मो. सुफियान (21) बताते हैं, "मैं सब्जी के ठेले के पास बैठा था तभी फैज़ल आया और मुझसे घर जाकर खाना खाने को कहा। मैं घर आया तब तक जानकारी हुई कि पुलिस उसे पकड़कर ले गई है। मैं अपने दोस्त के साथ कोतवाली पहुंचा तो देखा कि फैज़ल जमीन पर पड़ा था, कुछ बोल नहीं रहा था। विजय चौधरी (आरोपी सिपाही) रिक्शा लेकर आए और मुझसे कहा कि फैज़ल को सरकारी अस्पताल लेकर जाऊं। हम अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टर ने चेक करते ही बता दिया कि मेरा भाई मर गया है।"
सुफियान का कहना है कि पुलिस के सिपाही डॉक्टर पर दबाव बना रहे थे कि फैज़ल को उन्नाव जिला अस्पताल के लिए रेफर किया जाए, लेकिन डॉक्टर नहीं माने। बहुत दबाव बनाने पर डॉक्टर ने एक बार और चेक किया और बताया कि फैज़ल मर चुका है। इतना सुनना था कि दोनों सिपाही बाइक वहीं छोड़कर भाग गए। फैज़ल की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण दाहिने कान के ऊपर सिर पर आयी चोट को बताया गया। साथ ही फैज़ल की पीठ पर चोट के 13 निशान पाए गए थे।
फैज़ल की मौत का मामला अभी कोर्ट में चल रहा है। फैज़ल की मां नसीमा (58) उसका जिक्र आते ही रोने लगती हैं और बस इतना कह पाती हैं कि 'मेरे बेटे को मार दिया।' जब पुलिस हिरासत में फैज़ल की मौत हुई थी तब प्रशासन की ओर से जुर्माना देने की बात कही गई थी। परिवार का कहना है कि मौत के वक्त जो भी वादे किए गए वो पूरे नहीं हुए हैं, इसमें आर्थिक मदद और आवास देने की बात थी।
'पुलिस के तौर तरीकों में सुधार की जरूरत'
फैज़ल का केस लड़ने वाले वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा हिरासत में मौत के मामलों पर चिंता जाहिर करते हैं। वो कहते हैं, "जब पुलिस हिरासत में किसी की मौत होती है तो उसमें पूरा थाना शामिल होता है। क्योंकि जब पीड़ित की पिटाई हो रही है तो उसकी आवाज थाने में गूंजती है और सभी को इसका अंदाजा होता है। पुलिस के काम करने के तरीकों में बहुत सुधार की जरूरत है, क्योंकि ऐसा देखने में आता है कि निचले स्तर के पुलिसकर्मियों का व्यवहार लोगों के प्रति बहुत खराब है।"
महमूद प्राचा इस स्थिति के लिए साफ तौर से पुलिस अधिकारियों को जिम्मेदार मानते हैं। उनके मुताबिक, "कई बार ऐसा देखने में आता है कि पुलिस अधिकारी हिरासत में मौत के मामले को दबाने का प्रयास करते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। इसके उलट पुलिस अधिकारियों को अपनी फोर्स को यह बताने की जरूरत है कि उन्हें लोगों के साथ कैसे बर्ताव करना है। उन्हें मानवाधिकार के बारे में समझाने की जरूरत है।"
पुलिस के खराब बर्ताव को लेकर हमेशा से चर्चा होती रही है। इसमें सुधार करने की बात भी लगातार होती है। इसके बावजूद पुलिस प्रताड़ना के मामले आए दिन सामने आते हैं। इसी साल 3 अगस्त को लोकसभा में पुलिस हिरासत में प्रताड़ना से जुड़ा एक सवाल पूछा गया। इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एनएचआरसी के आंकड़े पेश किए। इसके मुताबिक, देश में 2018-19 में पुलिस हिरासत में प्रताड़ना के 542 मामले दर्ज किए गए। 2019-20 में 411 मामले दर्ज हुए और 2020-21 में 236 मामले दर्ज किए गए।
पुलिस के खराब बर्ताव को लखनऊ में हुई एक घटना से समझा जा सकता है। लखनऊ के अवध चौराहे पर एक लड़की ने ट्रैफिक पुलिस के सामने कैब ड्राइवर को बुरी तरह पीटा। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो गया। वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि मौके पर मौजूद पुलिस ने कैब ड्राइवर को बचाने की कोशिश भी नहीं की। इसके उलट मामले में कैब ड्राइवर पर ही मुकदमा दर्ज कर लिया गया और उसे रात भर थाने में रखा गया।
पीड़ित कैब ड्राइवर ने मीडिया को बताया, "उसने (लड़की) कार से मेरा फोन निकालकर तोड़ दिया। फिर मेरी गाड़ी का साइड मिरर भी तोड़ डाला। पुलिस हम दोनों थाने ले गई, जहां मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। वहीं लड़की पर कोई कार्यवाही नहीं की गई।"
इस मामले में लखनऊ के कृष्णानगर थाने के इंस्पेक्टर महेश दुबे समेत चार लोगों को लाइन हाजिर किया गया है। इनपर लापरवाही बरतने का आरोप है। वहीं, पीड़ित कैब ड्राइवर ने लड़की के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराया है।
पुलिस के खराब बर्ताव पर उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी अरविंद कुमार जैन कहते हैं, "पुलिस बल को न्यायपालिका की तरह स्वतंत्र रूप से काम करने की जरूरत है। इससे यह पॉलिटिकल प्रेशर में काम नहीं करेगी। इसकी कार्यप्रणाली पर निगाह रखने के लिए एक आयोग भी बनना चाहिए। पुलिस बल की बहुत कमी है जिसे बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि पुलिस बल की कमी होती है तो सरपट चाल काम होता है। जैसे - कोई अगर बयान नहीं दे रहा तो उसके साथ थर्ड डिग्री का इस्तेमाल हो जाता है, जो कि कायदे से नहीं होना चाहिए। पुलिस को अपने तौर-तरीके को बदलने की जरूरत है।"
वहीं, हिरासत में प्रताड़ना और मौत के मामलों पर अरविंद कुमार जैन कहते हैं, "इसकी कई वजहें हैं। यह बात तो साफ है कि इन मामलों में लापरवाही होती है तभी ऐसी घटना होती है। कुछ ऐसे मामले होते हैं जहां तबीयत खराब होने की वजह से मौत हो गई। कुछ सुसाइड के मामले भी होते हैं। हमारे लॉकअप भी बहुत अच्छे नहीं हैं, क्योंकि उसमें फांसी या फंदा लगा लेना बहुत मुश्किल नहीं है। कई बार आरोपी की पिटाई की वजह से भी मौत हो जाती है। इन बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए तो हिरासत में मौत के मामलों में कमी आ सकती है।"
हिरासत में मौत के मामलों में कोर्ट की कार्यवाही भी अपनी तय गति में चलती है। ऐसी स्थिति में कई बार मामले बहुत लंबे वक्त पर अटके रहते हैं। ऐसे में परिवार कोर्ट कचहरी के चक्कर से बचने के लिए मामलों को आगे भी नहीं बढ़ाता है। इसकी मुख्य रूप से दो वजहें हैं। पहला - कोर्ट केस लड़ने में आना वाला खर्च और कार्यवाही का लंबा वक्त। दूसरा - जिस भी परिवार के सदस्य की मौत हिरासत में होती है उन्हें खुद के लिए भी डर बना रहता है।
जेल रिफॉर्म पर लंबे वक्त से काम कर रहे सुप्रीम कोर्ट के वकील हरप्रीत सिंह होरा हिरासत में मौत के मामलों की अलग से सुनवाई करने की बात कहते हैं। हरप्रीत सिंह होरा के मुताबिक, "नॉर्मल सिस्टम से हिरासत में मौत के मामलों को हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए मानवाधिकार आयोग को ज्यादा बल देना होगा। साथ ही हिरासत में मौत से जुड़े आरोपियों पर त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। इससे दूसरों तक संदेश जाएगा। वहीं, जिनके परिवार में किसी की मौत हो रही है उसे अलग से न्यायिक मदद देनी चाहिए।"
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