'सरकार कहती है सबका साथ सबका विकास, मगर ये असल में नहीं हो पा रहा है'
नई दिल्ली: सरकारी आंकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं, बाल-विवाह और दहेज प्रथा जैसी कुरीतियां आज भी बरकरार हैं। आँकड़ों के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले जुर्म देश भर में हो रहे कुल जुर्म का 10% हिस्सा हैं। हिंसा के बाद 40% से भी कम महिलाएं इंसाफ़ पाने की कोशिश करती हैं, इसकी वजह से कई महिलाएं पढ़ नहीं पाती हैं और इनकी उम्र से पहले शादी कर दी जाती है। शादी के बाद पती द्वारा हिंसा के आंकड़े भी लॉकडाउन के दौरान बढ़ गए हैं।
महिलाओं के पास परिवार नियोजन के सही तरीक़े उपलब्ध नहीं है, जबकि इसकी पूरी ज़िम्मेदारी उन पर है। ऐसा ही कई मुद्दों पर हमने बात की पूनम मुटरेजा से, जो पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक हैं। इसके पहले पून भारत में मैक आर्थर फ़ाउंडेशन की राष्ट्रीय डिरेक्टर थी। ये पिछले 35 वर्षों से महिला अधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहीं हैं और कई एनजीओ के बोर्ड की सदस्य रह चुकी हैं। ये दस्तकार, विश फ़ाउंडेशन और अशोका फ़ाउंडेशन, नाम के संस्थानो की सह संस्थापक हैं और हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के जॉन एफ केनेडी स्कूल ओफ़ गवर्न्मेंट से पढ़ी हुई हैं।
हमने इस इंटरव्यू में पूनम से कुछ अहम मुद्दों पर बात की जैसे किशोरियों के साथ हो रही हिंसा का उनके जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, इंटरनेट की दुनिया में महिलाएं क्यों हिंसा का शिकार बन रही हैं, परिवार नियोजन में पुरुषों की ज़िम्मेदारी क्यों ज़रूरी है और प्रजनन इंसाफ़ क्या है।
पूनम का कहना है की साल 2021 के महिला दिवस पर, जो की हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है, अगर किसी एक मुद्दे पर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है, वो है साइबर सेक्शुअल अब्यूज यानी महिलाओं के ख़िलाफ़ इंटरनेट पर हो रही यौन हिंसा और दुर्व्यवहार।
आँकड़ों के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ती जा रही है। स्कूलों में होने वाली हिंसा, संस्थागत हिंसा, घर के अंदर होने वाली हिंसा और अपने पति या पार्टनर द्वारा होने वाली हिंसा बढ़ती जा रहा है। तो घर के भीतर और बाहर ये हिंसा किस स्तर पर हो रही है और ये महिलाओं और किशोरियों के लिए कितनी बड़ी समस्या है?
कोविड महामारी के बाद से महिलाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या है घर में और घर के बाहर होने वाली हिंसा इसमें यौन हिंसा और अन्य सभी तरह की हिंसा शामिल है। इसके बढ़ने के कुछ मुख्य कारण हैं। पहला, ऐसे बहुत से रेप के मामले मीडिया के ज़रिए सामने आए हैं, खासकर कुछ प्रांतों से, जहां सरकार आरोपियों का संरक्षण कर रही है। ये बहुत बढ़ावा देता है कि आप संरक्षण के साथ लड़कियों और महिलाओं को कुछ भी कर दें और आप के खिलाफ कोई कड़े क़दम नहीं उठाए जाएँगे। इससे जो संदेश पुरुषों को मिल रहा है ये बहुत ग़लत है और ये इस हिंसा को और बढ़ावा देगा, और आने वाले समय में हिंसा और बढ़ सकती है, मुझे ये चिंता है।
दूसरा, जब लड़कियां स्कूल जाती हैं, गाँवों में ही नहीं शहरों में भी, हमें मालूम है कि रास्ते में उन्हें लड़के छेड़ रहे होते हैं। लोग अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से डरते हैं। बाल विवाह के आंकड़ों में भारत में कुछ सुधार आया है, पहले के मुकाबले, पर ये सुधार बहुत कम है। अभी भी क्यों लगभग एक चौथाई लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है? इसलिए क्योंकि अभिभावकों को भी मालूम है की उनकी बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं।
सरकार का बहुत अच्छा नारा था, 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ', ये उल्टा हो रहा है। इसलिए सरकार को पुनर्विचार करना होगा की हमें क्या करना है, कैसे हमारी लड़कियों को सुरक्षित रखना है।
जहाँ तक सजा की बात है, मैं फांसी के ख़िलाफ़ हूँ, लोगों को लगता है की फाँसी की माँग करने से ये सब ख़त्म हो जाएगा, लेकिन ये सुनिश्चित करना ज़रूरी है की इंसाफ मिलेगा और जल्दी मिलेगा। असली इंसाफ का मतलब है हिंसा की रोकथाम करना। हम हिंसा से बचाव के लिए रोकथाम पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
स्कूलों में भी शिक्षकों द्वारा दुर्व्यवहार के कितने मामले सामने आते हैं। लड़कियों के साथ यौन हिंसा का सबसे बड़ा कारण हैं उनके पिता और घर के अन्य पुरुष, इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा कारण हैं अध्यापक, हम इसके लिए क्या कर रहे हैं?
हाल ही में किसी जज ने भी कहा है कि घर में अगर किसी लड़की के साथ बलात्कार या यौन हिंसा की जाती है तो उसकी शादी करवा दी जाए। ये सब हमारे देश की लड़कियों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा को सिर्फ़ बढ़ावा देगा, उसे कम नहीं करेगा। हमें इस पर बहुत गंभीरता से सोचना है और मै फिर से कहूँगी की रोकथाम इलाज से बेहतर है।
साथ ही जन स्वास्थ्य प्रतिक्रिया पर ध्यान देना ज़रूरी है। अगर आप किसी गाँव या शहर में किसी सरकारी डॉक्टर से बात करें, तो अगर उन्हें पता भी है कि बच्ची या महिला के साथ यौन हिंसा हो रही है घर में या स्कूल में, वो कुछ नहीं करेंगे क्योंकि ये उनकी जिम्मेदारी नहीं है।
मैं बहुत सालों से ये बात दोहरा रही हूँ की जन स्वास्थ्य की एक प्रक्रिया निर्धारित होनी चाहिए क्योंकि स्वास्थ्यकर्मी जैसे आशा या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, उन्ही से सम्पर्क होता है गाँव की महिलाओं और बच्चियों का। इन स्वस्थकर्मियों को ट्रेनिंग देना और इसे एक जन स्वास्थ्य मुद्दा बनाना ज़रूरी है। क्योंकि हर महिला जन स्वास्थ सेवाओं से जुड़ी होती है या तो प्रजनन सुविधाओं के लिए या फिर जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को लेके।
इसलिए ऐसा करना बहुत ज़रूरी है और ये बहुत ग़लत है की अब तक ऐसा नहीं हुआ है। मुझे मालूम है कि स्वास्थ्य मंत्रालय ऐसा चाहता था मगर होम मिनिस्ट्री ने अपना कोई कार्यक्रम बनाया था, अब वो कितना प्रभावी है ये देखा ही जा सकता है।
साथ ही अध्यापकों को ट्रेनिंग देनी चाहिए, उन्हें जानकारी देनी चाहिए। मै ये नहीं कहती की सभी शिक्षक यौन हिंसा करते हैं, मगर जो कर रहे हैं उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए और उन्हें रोकने के लिए बाक़ी शिक्षकों के पास ये जानकारी होनी ज़रूरी है ताकि वो ऐसा करने के लिए सशक्त महसूस करें। हालांकि ये सिर्फ़ अध्यापकों के बारे में नहीं है।
मगर घर और स्कूल के बीच बच्चियाँ सुरक्षित नहीं है। इसलिए उन्हें स्कूल नहीं भेजा जाता, उनकी शादी जल्दी करवा दी जाती है। ये एक महिला के ऊपर काफ़ी दुष्प्रभाव डालता है और उसके पूरे जीवन को प्रभावित करता है।
शारीरिक हिंसा या शारीरिक हिंसा के डर के बाद सबसे बड़ा ख़तरा जो लगातार बढ़ रहा है वो है इंटरनेट पर होने वाली हिंसा। जैसे-जैसे इंटरनेट की पहुँच बढ़ती जा रही है और ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियों के पास इंटरनेट की सुविधा है उसी के साथ इन तक पहुँचने वाले अब्यूज़र के लिए भी इंटरनेट एक और साधन बनता जा रहा है। डिजिटल दुनिया में महिलाएँ बदसलूकी और दुर्व्यवहार का निशाना बन रही हैं और इंटरनेट पर इनका अनुभव पुरुषों से काफ़ी अलग बनता जा रहा है। इसका कितना असर पड़ रहा है और ये महिलाओं के लिए कितनी बड़ी समस्या है?
साइबर-स्पेस या इंटरनेट पर जो दुर्व्यवहार या बदसूलूकी महिलाएँ झेल रही हैं ये उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। ये मानसिक और भावपूर्ण उत्पीड़न है, ये साइको-सेक्शुअल उत्पीड़न है जो शारीरिक हिंसा के ही समान है, इसका प्रभाव शारीरिक हिंसा से ज़्यादा या उसका जितना ही ख़राब है।
ये लड़की को हर वक़्त एक डर के साथ जीने पर मजबूर करता है कि कभी भी उसको इंटरनेट पर दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है। और ज्यादातर महिलाओं का अनुभव है ऐसा ही है, चाहे वो वरिष्ठ महिला पत्रकार हों, या स्कूल में पढ़ने वाली किशोरियाँ हों।
हमने बिहार में एक सर्वे किया जिसके नतीजे काफ़ी चिंताजनक थे, इसमें सामने आया की लड़कियां सबसे ज़्यादा हिंसा या दुर्व्यवहार का सामना अपने मोबाइल फ़ोन पर कर रही हैं। ये बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और हमारा सामाजिक और राजनीतिक वातावरण इसको बढ़ावा दे रहा है। राजनीतिक पार्टियां इस मामले में मार्गदर्शन करती दिखाई दे रही हैं, और इसमें सभी पार्टियां शामिल हैं। कोई कुछ भी कह सकता है, किसी भी महिला को परेशान कर सकता है, इस से दुष्कर्मियों को और बढ़ावा मिलता है।
मै वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का नाम लेना चाहूँगी, उन्होंने किस तरह के दुर्व्यवहार का सामना किया और सरकार और पुलिस ने इसके ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठाए। कोई क़दम न उठाना ही सबसे ज़्यादा बढ़ावा देता है। दुनिया भर में इंटरनेट पर दुर्व्यवहार को रोकने के लिए नीतियां हैं, भारत में भी कुछ नीतियां हैं जो इंटरनेट पर बाक़ी कई चीजों को नियंत्रित करती हैं पर दुर्व्यवहार से जुड़ी ऐसी कोई नीतियाँ नहीं है, जिनकी सख़्त ज़रूरत भी है।
बल्कि इस 8 मार्च को अगर हम एक सबसे बड़ी माँग आगे रख सकते हैं जो एक बड़ी संख्या में महिलाओं को लाभान्वित करेगी तो वो है ऐसी नीतियों। क्योंकि इसके अभाव में महिलाएँ डर में जी रही हैं। मै एक फ़िल्म निर्माता को जानती हूँ जो किसी भी मुद्दे पर बोलने से आज इंकार कर रहीं थी क्योंकि वो एक डर के साथ ज़िंदा रहती हैं की उनके साथ एक महिला, एक मुस्लिम और एक सशक्त, आत्मनिर्भर और खुल कर बोलने वाली महिला होने के लिए दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है।
महिलाओं का सशक्त दिखना भी उनके लिए ख़तरा बन गया है। ग्रामीण या ग़रीब इलाकों में महिलाओं के सफल होने की क्षमता या इंटरनेट पर मौजूद अवसरों का इस्तेमाल करना भी एक ख़तरा हो गया है क्योंकि उनकी सफलता उन्हें इस हिंसा का निशाना बना रही है।
आने वाले समय में ये सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है और इसे पूरी तरह से खत्म करना पड़ेगा क्योंकि महिलाएं तब तक टेक्नॉलजी का इस्तेमाल नहीं कर सकती जब तक वो 24 घंटे डर में रहेगी।
देश की लगभग 50% महिलाएं किसी भी परिवार नियोजन के तरीके का इस्तेमाल नहीं करती हैं। देश की 30 मिलियन शादी-शुदा महिलाएँ है जिनकी परिवार नियोजन की ज़रूरत पूरी नहीं हो पा रही है। परिवार नियोजन का सारा बोझ महिलाओं पर है, कंडोम, नसबंदी या पुरुषों के लिए मौजूद अन्य तरीकों का इस्तेमाल ना के बराबर है। काफ़ी कोशिशों कि बाद भी परिवार नियोजन से जुड़ी समस्याओं में सुधार क्यों नहीं हो पा रहा है?
परिवार नियोजन से जुड़ा सरकारी डेटा होने के बावजूद इस के साथ कई मिथक और ग़लत फ़हमियाँ जुड़ी हुई हैं। हमारे पास राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के हर चार साल के आंकड़े हैं, साथ ही जनगणना रिपोर्ट के आंकड़े हैं जो सब साफ़ साफ़ बताते हैं कि क्या करने की ज़रूरत है।
महिलाएं चाहती हैं की कम बच्चे करें, हमें सिर्फ़ उन्हें ऐसा करने के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवानी हैं। भारत में कोई भी महिला, किसी भी धर्म या तबके की हो, दो से ज़्यादा बच्चे नहीं चाहती।
लोग ज़्यादा बच्चे चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था की बच्चे उनका समर्थन करेंगे पर जब नौकरियां ही नहीं है तो मां-बाप ही बच्चे का समर्थन करते हैं, बहुत महंगाई बढ़ गयी है खाने के दाम इतने बढ़ गए हैं की लोग अपने बच्चों को ठीक से खाना भी नहीं खिला पा रहे हैं।
पुरुष अपनी कोई भी जिम्मेदारी परिवार नियोजन में नहीं निभा रहे हैं, बल्कि उनका गैर जिम्मेदाराना बर्ताव सामने आ रहा है। सिर्फ़ 0.3% पुरुष नसबंदी करवाते हैं जबकि ये बहुत सरल और साधारण तरीक़ा है जो वापस भी किया जा सकता है अगर बच्चा चाहते हैं तो। महिलाओं की नसबंदी में एनेस्थीसिया दिया जाता है, कई मुश्किलें आती है, बिलासपुर में एक नसबंदी कैंप में 17 महिलाओं की मौत हो गयी थी। फिर भी सिर्फ़ महिलें ही नसबंदी करवाती हैं।
साथ ही हमारे यहाँ स्पेसिंग यानी बच्चों में अंतर रखने के तरीक़ों को बढ़ावा देने पर हम ख़र्च ही नहीं करते, हमारा स्वास्थ्य बजट पहले से ही कम है, इसका सिर्फ़ 4% परिवार नियोजन पर ख़र्च होता है और इसमें से भी सिर्फ़ 2 से 3% स्पेसिंग के तरीक़ों पर ख़र्च होता है।
इतनी बड़ी जवान आबादी होने के बाद भी हमारे पास परिवार नियोजन के इतने कम साधान हैं। ख़ासकर जवान लोगों के पास तो और भी कम साधान हैं जिन्हें अस्थायी साधनो की ज़रूरत है, ना की नसबंदी की। साधन की कमी की वजह से महिलाएं जितने चाहती हैं उस से ज़्यादा बच्चे पैदा करती हैं और कोई भी बच्चा अनचाहा नहीं होना चाहिए।
परिवार नियोजन रोकथाम का एक सस्ता, टिकाऊ तरीक़ा है और परिवार की और देश की अर्थव्यवस्था के लिए, महिलाओं के लिए और देश के लिए अच्छा है। परिवार नियोजन में सुधार लाना और इसपर ख़र्च बढ़ाना ज़रूरी है। दुनिया भर की महिलाएँ यहाँ तक की नेपाल और बांग्लादेश की महिलाओं को भी जो भी साधन उपलब्ध हैं वो भी भारत की महिलाओं के पास नहीं है। छोटे छोटे देश जो हमसे ज़्यादा पिछड़े है वहाँ भी परिवार नियोजन के 4-5 ज़्यादा साधन उपलब्ध हैं।
हमें इस मुद्दे को राजनीतिक ना बनाते हुए इसपर काम करना है और ये मुद्दा सिर्फ़ औरतों का नहीं है, ये पुरुषों का मुद्दा है, मर्दों को ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी। ये सामाजिक मुद्दा है, सिर्फ़ औरतों का नहीं।
प्रजनन न्याय या रिप्रोडक्टिव जस्टिस क्या है और ये प्रजनन के अधिकार से कैसे अलग है?
प्रजनन न्याय हाशिए पर खड़ी महिलाओं को केंद्र में रखकर ये सुनिश्चित करता है की अगर महिला ग़रीब, दलित या मुस्लिम है तो भी उसे बराबर सुविधाएं मिलें। हम देखते हैं की बेहतर स्थिति में रह रही महिलाओं को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं और ख़राब स्थिति में रह रही महिलाओं को ख़राब।
अगर एक महिला के पास अपने परिवार के अंदर या अपने लिए चीजें माँगने का हक़ नहीं है तो ये सिर्फ़ उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है, एक समाज के तौर पर ये हमारी जिम्मेदारी है की हम उसके लिए न्याय सुनिश्चित करें। हम ये नहीं कह सकते की एक महिला की सास उसे कुछ करने नहीं दे रही, ये हमारे जन स्वास्थ्य और सरकार की भी बराबर ज़िम्मेदारी है की हम उस तक, उसकी सास तक पहुंचे और चीजों को सुधारें।
यहाँ न्याय का मतलब है की महिला को पास ये अधिकार हो की वो चुन सके की वो कब शादी करे, कितना पढ़े, कब बच्चे पैदा करे, कितने बच्चे पैदा करे। कोई लड़की जो पढ़ना चाहती है पर उसकी 16 साल की उम्र में शादी कर दी जाती है तो ये अन्याय है।
प्रजनन न्याय में सिर्फ़ परिवार नियोजन की सुविधाएं नहीं शामिल हैं, इसमें शिक्षा, प्रजनन स्वास्थ्य की जानकारी, बचपन में या किशोरावस्था में कुपोषण, अगर उसके साथ बलात्कार हुआ है या पति ने कंडोम इस्तेमाल नहीं किया है तो उसका गर्भपात करवाने का हक़, सब शामिल है।
एक लड़की जिसके साथ बलात्कार किया जाता है, उसे गर्भपात की इजाज़त के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट जाना पड़ता है, ये कैसे ठीक है। लड़की को नहीं पता चलेगा की वो गर्भ से है जब तक इसकी जांच नहीं होती है या ऐसा पाया नहीं जाएगा, जो कि 20 हफ़्ते के बाद भी हो सकता है। पर हमें पता है की इसके बाद भी गर्भपात सुरक्षित है और आसानी से किया जा सकता है।
जब एमटीपी कानून आया था तब ये जानकारी नहीं थी, पर अब डॉक्टर ये जानते हैं। ये न्याय है की क़ानून में ज़रूरत के अनुसार बदलाव लाए जाएं। महिला को इसकी इजाज़त लेने कोर्ट में जाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। अगर वो बच्चा नहीं चाहती है तो गर्भपात हर महिला का हक़ है, भले ही गर्भ धारण कैसे भी हुआ हो ।
साथ ही यौन शिक्षा भी बहुत ज़रूरी है, ये अन्याय है की किसी लड़का या लड़की को ये नहीं पता की असुरक्षित यौन संबंध बनाने से लड़की गर्भवती हो सकती है या इस से कई तरह के संक्रमण और बीमारियां हो सकती हैं। हर यौन रूप से सक्रिय व्यक्ति को इसके बारे में सही जानकारी हो ये उसका अधिकार है, और इस जानकारी का अभाव अन्याय है।
सरकार कहती है सबका साथ सबका विकास, मगर ये असल में नहीं हो पा रहा है, इसके बारे में सोचना होगा।
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