बस्तर/मुंबई : नवंबर का महीना और आंगन में गुनगुनी धूप। अपने 17 दिन के नवजात को तौलिए में लपेटकर यही गुनगुनी धूप सेकती 20 साल की रत्नी कश्यप कहती हैं, अगर मुझे परिवार नियोजन के बारे में पता होता तो शायद कभी इस बच्चे का जन्म नहीं होता। मैं 17 साल की थी तभी शादी हो गई थी। साथ में वह यह भी जोड़ती है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में उनके आदिवासी बहुल गांव बालेंगा में तो लड़कियों की शादी कई बार 14 या 15 साल की उम्र में ही कर दी जाती है। शादी के एक महीने के अंदर ही वह गर्भवती हो गई थी और उसका पहला बच्चा अब दो साल का है।

पिछले साल की शुरुआत यानी शादी के तीसरे साल जब रत्नी दूसरी गर्भावस्था के तीसरे महीने में थी तो उसे नवविवाहिता, गर्भवती महिलाओं और युवा मांओं के लिए स्थानीय स्व-सहायता समूह 'आमचो बासुल' द्वारा गांव स्तर पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। इसी में उसे पहली बार गर्भनिरोधक यानी कंडोम, इंट्रायूटरिन कॉन्ट्रासेप्टिव डिवाइस (IUCD) यानी कॉपर टी, परिवार नियोजन और गर्भनिरोधक गोलियों आदि के बारे में पता चला।

स्वाभिमान कार्यक्रम के तहत महिलाओं की स्व-सहायता समूहों द्वारा यह बैठक पूरे बस्तर में महीने में एक बार आयोजित की जाती है जिसे छत्तीसगढ़, ओडिशा और बिहार की महिला समूहों द्वारा संचालित किया जाता है। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन इस कार्यक्रम को तीनों राज्यों में स्वास्थ्य, नागरिक आपूर्ति, सामाजिक कल्याण, कृषि और सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी की भागीदारी से चलाता है। इस कार्यक्रम को यूनिसेफ तकनीकी और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराता है, जो क्षमता निर्माण में भी शामिल है।

छत्तीसगढ़ में, साल 2016 से चल रहे स्वाभिमान का संचालन 'बिहान', या सीजीएसआरएलएम यानी छत्तीसगढ़ ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत होता है। स्वाभिमान का जोर ऐसे समूहों पर है जिन्हें कुपोषण का अधिक खतरा है। इनमें किशोर उम्र की लड़कियां, नवविवाहित जोड़े, गर्भवती महिलाएं और दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों की माएं शामिल हैं। इसका मकसद पोषण में सुधार करना, खून की कमी (एनीमिया) को दूर करना, स्वास्थ्य सेवाओं की मांग बढ़ाना, साफ-सफाई में सुधार करना और अनचाहे गर्भ को रोकना है।

इसके अलावा आमचो बासुल 14 साल या इससे अधिक उम्र की किशोरियों के लिए किशोरी बैठकें नाम से अलग से भी बैठकें आयोजित करता है जो मुख्य तौर पर पोषण और स्वच्छता पर केंद्रित होता है। इसमें महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके कल्याण से संबंधित विभिन्न पहलुओं के बारे में चर्चा करने और सीखने के लिए महिला समूहों को इकट्ठा किया जाता है।

ऐसी बैठकों की अगुवाई मंगुन मित्स या पोषण सखियां करती हैं, जिन्हें जागरूकता फैलाने, चर्चाओं का नेतृत्व करने और इन मुद्दों से जुड़ी तमाम गतिविधियां आयोजित करने के लिए प्रशिक्षण मिला होता है। सभी पोषण सखियां इन्हीं समुदायों से चुनी गई महिलाएं होती हैं।

अपनी दूसरी गर्भावस्था के दौरान पिछले कुछ महीनों में रत्नी कश्यप ने आमचो बासुल की कुछ अन्य बैठकों में हिस्सा लिया, जिसमें उसे मातृत्व और परिवार नियोजन से संबंधित कुछ सरकारी योजनाओं और उसकी पात्रता के बारे में भी जानकारी मिली। इनमें प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना और नेशनल फैमिली प्लानिंग इनडेमिनिटी स्कीम (एनएफपीआईएस) शामिल हैं, जो माहवारी और स्वच्छता, टीकाकरण, प्रतिरक्षण, पोषण युक्त भोजन और परिवार नियोजन से संबंधित है। इन बैठकों में हिस्सा लेने के बाद, रत्नी प्रसव से पहले तीन बार स्वास्थ्य जांच के लिए गई। इस दौरान नियमित तौर पर आयरन फॉलिक एसिड और कैल्शियम की गोलियां भी ली और भोजन में हरी सब्जियां और अंडे की मात्रा भी बढ़ाई। रत्नी ने बताया कि इस दौरान उसने मछली भी खानी शुरू की, जबकि उनका समुदाय गर्भवती महिलाओं को मछली खाने से मना करता था। इसका फायदा यह हुआ कि उसका दूसरा बच्चा पहले बच्चे की तुलना में सेहतमंद हुआ। वह अब इस बात को समझ चुकी थी कि बच्चे को पहले छह महीनों तक सिर्फ स्तनपान कराने की जरूरत होती है और फिर उसे वह नियमित तौर पर प्रतिरक्षण के लिए भी ले जाती हैं। रत्नी को इस बात का भरोसा हो गया कि उसके बच्चे अब बड़े होने पर भी स्वस्थ रहेंगे क्योंकि वह अब जान चुकी है उसे कब क्या खिलाना है और कब हैल्थ चेकअप के लिए ले जाना है।

रत्नी ने इंडिया स्पेंड को बताया कि अगर उन्हें पहले गर्भावस्था को टालने और दो बच्चों के बीच कितना अंतर होना चाहिए इस बारे में जानकारी होती, तो वह कम से कम दो वर्षों तक अपने दूसरे बच्चे को जन्म नहीं देती। अब जबकि गर्भनिरोध के बारे में जानकारी हो गई है तो अगले कई वर्षों तक वह तीसरे बच्चे की योजना नहीं बनाएगी।

देशभर में रत्नी कश्यप जैसी बहुत सी किशोरवय लड़कियों का कम उम्र में विवाह कर दिया जाता है या भागकर विवाह कर लेती हैं, सेक्स करती हैं और गर्भवती हो जाती हैं। उन्हें अक्सर गर्भनिरोधक उपायों के बारे में बहुत कम या बिल्कुल जानकारी नहीं होती। वे स्वयं तो कुपोषित होती ही हैं, कम उम्र की लड़कियां कुपोषित बच्चों को ही जन्म देती हैं और उन्हें यह नहीं पता होता कि उसे खुद क्या खाना है और बच्चों को क्या खिलाना है, कब चेकअप कराना है।


"बस्तर नक्सलियों का गढ़ है जहां काफी पुराने आदिवासी समूह निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश महिलाओं में सेहत को लेकर परेशानी बनी रहती है और प्रसव पूर्व स्वास्थ्य जांच जैसी सेवाएं ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच नहीं पाती हैं," छत्तीसगढ़ स्थित यूनिसेफ (संयुक्त राष्ट्र बाल कोष) की पोषण विशेषज्ञ फरहत कहती हैं ।

इंडियास्पेंड ने बस्तर में सात गांवों का दौरा किया जहां स्वाभिमान कार्यक्रम को लागू किया गया है। इस दौरान हमने पाया कि किशोर लड़कियों और युवा मांओं को स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी सुविधा और पात्रता की जानकारी, सही पोषण की अहमियत, साफ-सफाई, स्कूल की पढ़ाई छोड़ने, कम उम्र में शादी और गर्भधारण से नुकसानों की जानकारी मुहैया कराई जा रही है। पोषण और माहवारी के दौरान स्वच्छता जैसे विषयों पर बात करना पहले से आसान हुआ है, लेकिन परिवार नियोजन और गर्भनिरोध जैसे मुद्दों से अभी भी दूरी रखी जाती है।

गंभीर रूप से अविकसित 19 वर्षीय किशोरी अपनी रसोई में मक्की का मांड बनती हुई ।

स्वाभिमान के तहत सामुदायिक गतिविधियों का विस्तार

स्वाभिमान कार्यक्रम तीन राज्यों के चार जिलों- बिहार में पूर्णिया, छत्तीसगढ़ में बस्तर और ओडिशा में कोरापुट और आंगुल में चल रहा है और इसकी पहुंच 356 गांवों और 1 लाख 25 हजार 97 परिवारों तक है। 2016-2019 की वार्षिक प्रगति रिपोर्ट के अनुसार, इस कार्यक्रम से अभी तक 11 हजार 180 ग्राम पंचायतों में 18 हजार 700 लड़कियों और महिलाओं को लाभ मिला है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे, 2015-16 के अनुसार, छत्तीसगढ़ में गर्भवती महिलाओं में से 4 प्रतिशत का प्रसव पूर्व जांच का कोई प्रमाण नहीं मिला, सिर्फ 22 प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव पूर्व पूर्ण स्वास्थ्य जांच मिल सकी थी। यूनिसेफ एंड इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (आईआईपीएस) की ओर से की गई 2019 की एक अन्य स्टडी में 83 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनके परिवार के लोग अभी भी खुले में शौच कर रहे हैं, किशोर उम्र की लड़कियों में से 75 प्रतिशत ने बताया कि उन्होंने माहवारी के दौरान सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं किया। सिर्फ 14 प्रतिशत किशोर उम्र की लड़कियों ने ही सरकार की स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाया।

यूनिसेफ की 2019 की एक स्टडी के अनुसार, एक थाली में विभिन्न खाद्य पदार्थों के पोषक तत्वों को मापने के लिए आहार विविधता स्कोर का उपयोग किया गया तो पता चला कि छत्तीसगढ़ में किशोर उम्र की लड़कियों का स्कोर 4.45 प्वाइंट था। यह काफी कम है क्योंकि 6-10 प्वाइंट के एक आहार विविधता स्कोर का मतलब होता है, व्यक्ति सभी 10 खाद्य समूहों (पशु-आधारित खाद्य पदार्थों, सब्जी-आधारित खाद्य पदार्थों आदि) की खपत करता है।

मंगुन मित्स यानी पोषण सखियां नवविवाहिता, युवा मांओं और किशोर उम्र की लड़कियों के साथ मासिक बैठकें कर स्वास्थ्य और पोषण के लक्ष्यों की निगरानी करती हैं। आमचो बासुल की बैठकों में माइक्रो फाइनेंसिंग, गर्भावस्था, बच्चों की देखभाल, प्रतिरक्षण और परिवार नियोजन के मुद्दों पर बातचीत की जाती है, जबकि किशोरी बैठकों में बाल विवाह, कम उम्र में गर्भवती होने और शिक्षा से जुड़े मुद्दे प्रमुख होते हैं। सफाई, माहवारी के दौरान स्वच्छता, पोषण, आहार में विविधता और खुले में शौच के मुद्दों पर दोनों बैठकों में चर्चा की जाती है। आमतौर पर इन बैठकों में 15-20 सदस्य हिस्सा लेते हैं और वे इन जानकारियों को जीवन में उतारने के लिए तरह-तरह के गेम्स खेलते हैं।

एक मंगुन मित एक चार्ट के माध्यम से इलाके की किशोरियों और महिलाओं के द्वारा झेली जाने वाली समस्याओं को समझते हुए।

आईआईपीएस, एनआरएलएम और यूनिसेफ की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि किशोर उम्र की लड़कियों के बीच सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल 2016 में 36% से बढ़कर 2018 में 62% पर पहुंच गया। 10-14 साल की उम्र के बीच किशोर लड़कियों का स्कूलों में नामांकन 2016 में 86% से बढ़कर 2018 में 91% हो गया, जबकि 15-19 साल की लड़कियों के लिए यह 2016 में 55% से 2018 में 64% हो गया। लड़कियों की खुराक में भी अंडा/मीट/मछली की खपत बढ़ने से सुधार हुआ, यह 2016 में 21% से बढ़कर 2018 में 26% रहा और विटामिन ए की अधिक मात्रा वाले सब्जियों और फलों की खपत भी समान अवधि में 91.5% से बढ़कर 95% हो गई। आयरन और फॉलिक एसिड की गोलियों को लेने के प्रतिशत में भी सुधार हुआ और यह 2016 में 52% से 2018 में 55% हो गया। इसके साथ ही सामुदायिक स्वास्थ्य और स्वच्छता कार्यक्रमों में हिस्सेदारी बढ़ी।

"पिछले चार वर्षों में स्वाभिमान ने लोगों के बीच काफी जागरूकता फैलाई है। लेकिन ताली दोनों हाथों से बजती है। हम जिसे सेवाएं दे रहे हैं उसकी ओर से भी रिस्पांस मिलना जरूरी होता है," यूनिसेफ की फरहत बताती हैं। फरहत ने एक मां का उदाहरण दिया जिसे उसके बच्चे के लिए टीकाकरण की जानकारी दी गई थी लेकिन उसे स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र में टीका मिला ही नहीं।

स्वच्छता और पोषण में सुधार

17 वर्ष की सानिया मंघोरे और 16 साल की निर्वती नाग कक्षा -11 में पढ़ती हैं, जबकि 15 साल की सुबाती बघेल कक्षा-9 में। तीनों बस्तर के मुंडापाल गांव के एक ही स्कूल में जाती हैं और एक साथ किशोरी बैठकों में भी हिस्सा लेती हैं। इन तीनों की जीवन को लेकर एक जैसी योजनाएं हैं मसलन, स्कूल के बाद कंप्यूटर साइंस और नर्सिंग पढ़ना, फिर शादी और बच्चे।

इन तीनों से बातचीत में पता चला कि किशोरी बैठकों में शामिल होने के बाद तीनों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में अच्छी जानकारी है, लेकिन वे अपने जीवन में इसे व्यावहारिक तौर पर अपना नहीं पाती हैं।

सानिया ने माहवारी चक्र के अपने पहले अनुभव के बारे में बताया कि सहेलियों से माहवारी के बारे में सुनने के बावजूद, पहली बार का अनुभव काफी डरावना था। उसने शर्माते हुए कहा, "जब मैं सोकर उठी और मैंने खून देखा तो मुझे कुछ अजीब सा लगा था। मैंने सोचा कि मैं मर जाऊंगी। मैं एक सहेली के पास गई जिसने मुझे इस बारे में पूरी जानकारी दी और मुझे इस्तेमाल करने के लिए एक कपड़ा दिया। मुझे अपने घर जाते डर लग रहा था। मेरी मां ने मुझे रसोई में नहीं आने दिया और नमक या अचार छूने से मना कर दिया। मैं बेडरूम में भी नहीं जा सकती थी जहां हम एक छोटी वेदी रखते हैं।" निर्वती और सुबाती के भी उनकी पहली माहवारी को लेकर एक जैसे अनुभव थे।

किशोरी बैठकों में हिस्सा लेने के साथ ही इन लड़कियों के जीवन में बदलाव आया। सानिया ने बताया, "जब दीदी (एक मंगुन मित) ने चीजों को समझाया, तो मेरी मां ने मुझे हल्दी के पानी से स्नान करने के बाद रसोई में मदद करने साथ ही सभी कमरों में जाने की भी अनुमति दी।" हल्दी में संक्रमण-रोधी गुण होते हैं और इसका धार्मिक व पारंपरिक अनुष्ठानों या रीति-रिवाजों में शुद्धीकरण के तौर पर उपयोग किया जाता है। लेकिन सानिया को अभी भी माहवारी के दौरान वेदी को छूने की अनुमति नहीं है।

सानिया मंघोरे, 17, निर्वती नाग, 16, और सुबाती बघेल, 15, तीनों बस्तर के मुंडापाल गांव के एक ही स्कूल में जाती हैं और एक साथ किशोरी बैठकों में भी हिस्सा लेती हैं।

तीनों लड़कियों ने बताया कि उन्हें इन बैठकों की वजह से स्वस्थ रहने के तौर तरीकों की जानकारी मिली है। इंडियास्पेंड से बातचीत में निर्वती ने बताया, "बैठकों में हमने सीखा कि माहवारी के दौरान सूती कपड़े या सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करना चाहिए और हर छह घंटे में इसे बदलना चाहिए। अब हमें पता है कि हर बार पैड बदलने पर उसे साबुन और पानी से पूरी तरह साफ करने की जरूरत है। हमें किसी कपड़े को तीन महीने से अधिक इस्तेमाल नहीं करना है और इसका निस्तारण उसे जलाकर या जमीन में दबाकर करना चाहिए।"

अब ये तीनों लड़कियां सिर्फ सैनिटरी पैड का ही इस्तेमाल करती हैं। वे सात पैड का एक पैकेट 30 रुपये में खरीदती हैं और यह एक चक्र तक चलता है। हालांकि, सुबाती ने बताया वे सामान्य सलाह से इतर एक ही पैड को 12 घंटे से अधिक इस्तेमाल करती हैं क्योंकि पैड की सोखने की क्षमता ज्यादा है और ज्यादा चलता भी है। उसने ये भी बताया कि एक महीने में 30 रुपये खर्चना काफी महंगा है, हम इससे अधिक खर्च नहीं कर सकते।"

बैठकों में पोषण पर सबसे अधिक चर्चा होती है और इस तरह से इन लड़कियों के लिए यह अब सामान्य जानकारी बन गई है। उन्हें घर पर सब्जियां उगाने का तरीका भी सिखाया गया है लेकिन वे नियमित तौर पर इसे नहीं अपना रही हैं। सुबाती ने कहा, "हम आयरन-फॉलिक एसिड की गोलियां लेते हैं लेकिन जितनी बताई गई हैं उतनी नहीं क्योंकि इससे हमारा पेट खराब हो जाता है।"

एक किशोरी हरी सब्ज़ियों की देखभाल, जो उसने किशोरी बैठक में सीखा, करते हुए

"शाकाहारी परिवारों की बहुत सी लड़कियों की खुराक में अभी भी पर्याप्त प्रोटीन नहीं है। सब्जियां उगाने वाली लड़कियों के माता-पिता अक्सर सब्जियों को घर पर पकाने के बजाय बेच देते हैं क्योंकि यहां अधिकतर परिवार गरीब हैं," अलवाही गांव की एक मंगुन मित, ललिता बघेल ने बताया।

असहज होता है सेक्स के बारे में बात करना

चूंकि इन बैठकों में सेक्स और गर्भनिरोध के मुद्दों पर बातचीत करना असहज होता है, लिहाजा इन तीनों किशोर उम्र की लड़कियों ने गर्भनिरोधकों के बारे में अनौपचारिक स्रोतों मसलन अपनी भाभी, अन्य रिश्तेदारों या घर से भागने वाली सहेलियों से जानकारी हासिल की है।

किशोरी बैठकों में हिस्सा ले चुकी बहुत सी किशोर उम्र की लड़कियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि उन्हें बाल विवाह और किशोरावस्था में गर्भवती होने के नुकसानों की जानकारी थी लेकिन उन्हें परिवार नियोजन के बारे में कुछ नहीं पता था।

सानिया कहती है कि लोग लड़कियों को सेक्स न करने की सलाह देते हैं, हालांकि ये उसकी मर्जी पर छोड़ दिया जाना चाहिए। उसे किसी से प्यार हो सकता है या वह किसी के साथ भाग सकती है। फिर जब वह गर्भवती हो जाती है, तो पूरा दोष उस पर मढ़ दिया जाता है, इसलिए लड़कियों को सुरक्षित सेक्स के बारे में बैठकों में बताया जाना चाहिए। सानिया ने आगे कहा, "अभी तक इस तरह का कोई सत्र नहीं हुआ है। अगर दीदी (मंगुन मित) हमें सुरक्षित सेक्स के बारे में बताएंगी, तो हम उसे जरूर सुनेंगे।"

सेक्स के बारे में अपनी सीमित जानकारी के बावजूद, सानिया कंडोम को बेहतर गर्भनिरोधक मानती है। उसने बताया, "मैं अपने पति से इसे इस्तेमाल करने को कहूंगी।" जबकि निर्वती को गर्भनिरोधक गोलियां पसंद है। उसके मुताबिक, ऐसी चीजों के बारे में पति से नहीं कहा जा सकता। तो सुबाती स्थानीय परंपरागत तरीकों को सही मानती हैं। उसने बताया, "मैं इमली का इस्तेमाल करूंगी क्योंकि मेरी भाभी इसका इस्तेमाल करती हैं और वह अभी तक गर्भवती नहीं हुई हैं।"


"सब लड़कियों को सेक्स ना करने की सलाह देते हैं, लेकिन ये उसकी इच्छा है... इस लिए हमे सुरक्षित सेक्स के बारे में बताया जाना चाहिए," 17 वर्षीय सानिया कहती है

इंडियास्पेंड ने लड़कियों और महिलाओं के साथ बातचीत में पाया कि बस्तर के इलाकों में लड़कियों की कम उम्र में ही यौन सक्रियता बढ़ जाती है। एक स्थानीय मंगुन मित ने बताया कि प्रेमियों के साथ भागना और कम आयु में विवाह भी सामान्य है, खासतौर पर आदिवासी क्षेत्रों में। सोनरपाल गांव की एक मंगुन मित, नुपुर हल्दर ने बताया, "ऐसी बातचीत करना मुश्किल है, हमें भी हिचक होती है, हम इसे प्रोत्साहित नहीं करना चाहते।"

सेक्स और गर्भनिरोधकों के बारे में बात करना मंगुन मित के लिए न सिर्फ असहज होता है, बल्कि शादी से पहले चाहे वो किसी भी उम्र की हों, यौन संबंध बनाने को वह सिरे से खारिज करती हैं। इसकी वजह बताते हुए बघेल ने बताया, "लड़कियां अगर शादी से पहले यौन संबंध बनाती है तो इसका खामियाजा उसे ही भुगतना पड़ता है।" बस्तर के इलाकों में कम उम्र में यौन सक्रियता को बघेल स्वाभिमान कार्यक्रम के लिए चुनौती मानती हैं।

"इस बारे में आप जागरूकता बढ़ा सकते हैं, जानकारी मुहैया करा सकते हैं लेकिन आप व्यवहार में त्वरित बदलाव सुनिश्चित नहीं कर सकते। इस तरह के बदलाव में वक्त लगता है," बस्तर में स्वाभिमान कार्यक्रम में मदद कर रही भारती साहू ने बताया।

स्वाभिमान कार्यक्रम के सामने अन्य चुनौतियों में गरीबी, कम आमदनी, लड़कियों को शिक्षा देने के कम आर्थिक लाभ, कम आयु में शादी को सामाजिक स्वीकृति और कुपोषण शामिल हैं।

(यह खबर इंडियास्पेंड में प्रकाशित की गई खबर का हिंदी अनुवाद है।)

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