दक्षिण 24 परगना, पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल का सुंदरबन का इलाक़ा जो कि अपने बाघों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है धीरे-धीरे ऐसे गावों में तब्दील होता जा रहा है जहां अब सिर्फ महिलाएं ही मौजूद हैं।

सुंदरबन के कई गांवों में सिर्फ महिलाएं ही रहती हैं क्योंकि इनमे से कइयों के पति आजीविका ढूंढने के लिए अन्य शहरों में मज़दूरी करने चले गए हैं या फिर सुंदरबन टाइगर रिज़र्व में मछली पकड़ने के दौरान बाघ का शिकार बन गए। कुल मिलाकर इन गावों में बच गयी हैं सिर्फ महिलाएं जो अपने अकेले के दम पर परिवारों का भरण पोषण करने पर मजबूर हैं।

पश्चिम बंगाल के दक्षिणी ज़िले, दक्षिण 24 परगना के सुंदरबन के जंगलों से सटा एक गाँव-- देऊलबाड़ी। इस गाँव को इस इलाक़े में 'विधवापाड़ा' के नाम से भी जाना जाता है, विधवापाड़ा यानी विधवाओं का गाँव। इस गाँव के हर दूसरे घर में एक विधवा रहती है जिसके पति की मौत बाघ का शिकार बनने से हुई हैं।

देऊलबाड़ी की रहने वाली 23 वर्षीय अंजलि बैद्य के पति इस साल फरवरी की पहली तारीख को रोज़ की तरह जंगल में काम पर गए थे लेकिन कभी नहीं लौटे।

अंजली की शादी सात साल पहले हुई थी जिस दौरान उनके पति 6 महीने जंगलों में जाकर मछली पकड़ने का काम करते थे और बाकी के 6 महीने कोलकाता में मजदूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण करते थे। अंजलि अपने दो बच्चों को शहर में पढ़ाना चाहती थी लेकिन बीते महीने में वो कई दिन उनके लिए दो वक़्त का खाना भी जुटा नहीं पायी है

"मैं सोचती रहती हूँ कि मेरी ज़िंदगी का क्या होगा, मेरे बच्चों का क्या होगा, वो कैसे बड़े होंगे, मैं अकेले क्या करूँगी, ये ज़िंदगी बहुत बड़ी है, सब कैसे होगा? आज से मेरे घर में चूल्हा जलना शुरू हुआ है, लोगों से जो चावल माँगा है वो पका रही हूँ एक महीने से गाँव वालों से माँग कर ही बच्चों को खिला रही हूँ," अंजली ने बताया।

"कोई चावल देता है, कोई सब्ज़ी देता है, ऐसे ही सबसे माँग कर चलता है। ऐसे भी दिन होते हैं की कोई भी खाना नहीं देता, बच्चों को भूखा सोना पड़ता है, जब से इनके पिता की मौत हुई है, ऐसे कई दिन गुजरे हैं जब इनको भूखे पेट सुलाना पड़ा है," अंजली ने बताया।

अंजलि की तरह ही इस इलाक़े में कई महिलाएं हैं जिनके पति को बाघ ने मार दिया।

पश्चिम बंगाल की बाघ विधवा

देऊलबाड़ी गांव जहाँ अंजली रहती है, इस गाँव के हर दूसरे घर में एक विधवा रहती है।

किसी के पति की मौत 10 दिन पहले हुई है और शोक नया है, किसी के पति की मौत 10 साल पहले, और शोक काफ़ी समय पहले ख़त्म हो चुका है। लेकिन संघर्ष दोनो का बराबर है, किसी के लिए नया है, किसी को इससे जूझने की आदत हो चुकी है।

इन सब के पतियों की मौत का कारण एक ही है, बाघ द्वारा मारा जाना। सुंदरबन दुनिया भर में अपने आदमखोर रॉयल बंगाल बाघ के लिए जाना जाता है, जो एक लुप्तप्राय प्रजाति है। सुंदरबन में फ़िलहाल 96 बाघ हैं।

"ये समस्या समय के साथ बढ़ती जा रही है, हर दिन खबर आती है कि बाघ किसी को खा गया। ऐसा होने के बाद पूरा परिवार बिगड़ जाता है, बच्चों की पढ़ाई, खानपान सब मुश्किल हो जाता है," इस इलाके में महिलाओं के साथ काम करने वाली संस्था 'रूपांतरण' के साथ जुड़ी, स्मिता सेन ने बताया।

"बाघ का शिकार होने वाले लोगों का सरकारी आंकड़ा हकीकत से काफी दूर है। सरकार सिर्फ उन्ही को गिनती में शामिल करती है जिनके पास जंगल में जाने का परमिट होता है। पर हकीकत में 80% लोगों के पास परमिट होता ही नहीं है," नकुल जाना, 77, सुंदरबन टाइगर विडो वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष ने बताया।

"हम 2011 से बाघ विधवाओं का आंकड़ा इकट्ठा कर रहे हैं, सुंदरबन में ये आंकड़ा लगभग 3,000 है। आखिरी मौत यहां 7 मार्च को हुई," नकुल ने बताया।

विधवापाड़ा गांव में महिलाएं। फोटो: साधिका तिवारी

मुआवज़े की बातें एक 'कागज़ी शेर'

बाघ विधवाओं की मुश्किलें सिर्फ यहां पर ही खत्म नहीं होती हैं। जब मुआवज़े की बात आती हैं तो इनमे से बहुत ही कम महिलाओं को सरकार की तरफ से मुआवज़े की राशि प्राप्त हुई हैं।

"मेरा पति मर गया पर सरकार ने मुझे कुछ नहीं दिया, बाक़ी कई लोगों को मिला पर मुझे नहीं मिला। मैंने सबको पूछा, सबको बताया पर एक पैसा भी नहीं मिला आज तक। मेरे पति को मरे हुए एक साल से भी ज़्यादा हो गया, कितनी बार बोला पर कुछ नहीं मिला। मैं किस से शिकायत करूँ, मेरी कौन सुनेगा?" जमुना बैद्य, 60, ने बताया।

"मेरा बेटा काम नहीं करता, अपाहिज है, हमारे पास खाने को भी कुछ नहीं होता," जमुना ने कहा।

जमुना बैद्य अपने घर के बाहर। फोटो: साधिका तिवारी

"मुआवजा दिलवाने में कोई भी महिला की मदद नहीं करता, न ही रिश्तेदार, न ही कोई पड़ोसी। एक फॉर्म भरना ही इतना मुश्किल होता है। ये पूरी व्यवस्था ही बहुत खराब है। परिवार अक्सर विधवा महिलाओं को पाप या अशुभ बुला कर उसकी मदद करने की बजाय उसे परिवार से निकाल देते हैं, ताकि घर की जायदाद में से उसका हिस्सा खत्म हो जाए," नकुल ने बताया।

'मुआवजा तीन अलग अलग विभाग देते हैं, कागज पर तो आजकल ये राशि काफी बढ़ गई है पर ये असल में कितनों को मिलती है ये अलग बात है। किसी को एक लाख, दो लाख या पांच लाख तक मुआवजा मिलता हैं। पर्यावरण और वन विभाग, पांच लाख रुपए देता है, दो लाख मछली पालन विभाग देता है और बीमा की तरफ से एक लाख रुपए," नकुल ने बताया।

"मेरे घर के पास जिस महिला के पति को बाघ ने मारा उसको 4 लाख रुपए मिले सरकार से," अंजली ने बताया। पर अभी तक अंजली को कुछ नहीं मिला है, वो कई बार सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगा चुकी है पर अभी तक उन्हें कोई आर्थिक मदद नहीं मिली।

"मैं सरकारी दफ़्तर में गयी, नाव के मालिक से लड़ाई भी की, पुलिस को पूछा, पर कुछ नहीं हुआ," अंजली ने बताया, "मेरे पति का डेथ सर्टिफ़िकेट भी अभी तक नहीं मिला है।"

"बिना परमिट के जंगल में जाने के लिए सरकार जेल और जुर्माना लगा सकती है। लोगों में इतना डर है कि अक्सर किसी महिला का पति मर जाता है और वो किसी को नही बताती, उसकी चिता नही जलाती, शोक नही मनाती। महिलाएं झूठ बोल देती है की उनका पति शहर में काम करने गया है, 6-7 महीने में सब भूल जाते हैं," नकुल ने बताया।

बाघ का डर या रोज़गार की कमी, सुंदरबन में अकेले संघर्ष कर रही महिलाएँ

"सुंदरबन के खेत कम होते जा रहे हैं, खेतों का बढ़ता खारापन धान की उत्पादकता कम रहा है, कुछ खेत इतने खारे हो चुके हैं की किसान इन्हें कम दाम पर बेचने पर मजबूर है, इस खेत के ख़रीददार है प्रॉन मछली का उत्पादन कर रहे किसान क्योंकि प्रॉन खारे पानी में बेहतर होता है, फ़िशरी में भी मछलियां कम है," इस इलाक़े के जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे, शौमित्रा दास ने बताया, "यहाँ जीवन यापन बहुत कठिन है, लोग यहाँ से पलायन करने पर मजबूर हैं।"

सुंदरबन में होने वाला मछली पालन। फोटो: साधिका तिवारी

"अक्सर लोग पूरे परिवार के साथ पलायन करते हैं, पर भारी संख्या में महिलाएं और बच्चे घर पर रहते हैं," सुंदरबन में महिलाओं के साथ काम करने वाले संगठन, रूपांतरण के साथ जुड़ी स्मिता सेन ने बताया, "नतीजा ये है कि पलायन का कारण दूसरे शहरों में नौकरी हो हो या बाघ, महिलाएं यहाँ अकेले ही अपने और अपने बच्चों का ख़याल रखने को मजबूर हैं।"

पति को बाघ ने मार दिया हो या वो नौकरी के लिए शहर गया हो, समानता ये है कि सभी महिलाएं अकेले संघर्ष कर रही है। कुछ पति के पैसे भेजने की उम्मीद के साथ, कुछ इसके बिना।

जितनी महिलाओं से इंडियास्पेंड ने बात की वो या तो दूसरे के खेतों में दिहाड़ी करती हैं, ये काम ज्यादातर लोगों को हफ़्ते में सिर्फ़ दो दिन मिलता है, प्रतिदिन रुपए 200-250 के मेहनताने के साथ। इसके अलावा जब मौक़ा मिलता है ये फ़िशरी में काम करती हैं।

इस सब के बीच जब अम्फान या बुलबुल जैसे तूफ़ान आते हैं और जीवन फिर एक सिरे से दोबारा बसाना पड़ता है तो ये भी महिलाएं अकेले करती हैं। ज़्यादातर महिलाएं रोजमर्रा के संघर्षों से इतनी घिरी हुई हैं कि घर उजाड़ने पर मिलने वाले मुआवज़े के लिए फ़ॉर्म भरना या सरकारी दफ़्तर जाने का ना ही इनके पास समय है और ना ही संसाधन।

अम्फान के बाद राज्य सरकार ने पीड़ितों को घर बनाने और खेती में हुए नुक्सान के लिए मुआवज़े कि घोषणा की थी। लेकिन ये राशि अभी भी कई पीड़ितों तक नहीं पहुँच पायी हैं।।

"अम्फान के बाद से हम घर फिर से बनाने की कोशिश कर रहे थे, मेरा घर भी पूरा बना नहीं है, अभी इसमें और मिट्टी लगेगी, घर बनाने के लिए पैसे भी मेरे पति के ही पास थे, पता नहीं अब ये घर कैसे बनेगा," अंजली ने कहा।

"यही एक छोटा घर है, वो पूरी तरह टूट गया था अमफान में, पर सरकार से कोई मदद नहीं मिली, ये अभी धीरे धीरे बनाना शुरू किया है। अगर मुआवज़ा माँगने सरकारी दफ़्तर जाऊँगी तो उस दिन का पैसा कौन लाएगा, खाना कौन बनाएगा, बच्चे कौन देखेगा," अंजली ने बताया।

चंदना मंडल, 36, के पति की मौत लगभग 3 महीने पहले हुई। चंदना के तीन बच्चे हैं जिनके पालन पोषण के लिए उन्होंने काम करना शुरू किया है।

"मैं पहले काम नहीं करती थी, अब मैंने काम करना शुरू किया है, अभी मैं धान के खेत में काम करती हूँ, जो भी काम मिलेगा खेत में या फ़िशरी में, मैं करूँगी। अभी एक दिन काम करने के रुपए 200 से 250 मिलते हैं, पर काम हफ़्ते में सिर्फ़ दो बार मिलता है," चंदना ने बताया।

चंदना मंडल अपने घर पर। फोटो: साधिका तिवारी

"पर इतने पैसे में कुछ नहीं होता है, बच्चों के लिए खाना भी पूरा नहीं पड़ता है, जब से पति की मौत हुई है बच्चों के लिए खाना भी पूरा नहीं पड़ता है, कई दिन रोते रोते भूखे सो जाते हैं, मैं क्या करूँ। कुछ दिन गांव वालों से माँग कर कुछ खाया पर गाँव वाले भी मदद नहीं करते हैं। 15 दिन से मेरी तबियत ख़राब है पर पैसा नहीं है डॉक्टर के पास जाने का," चंदना ने बताया। चंदना को भी कई चक्कर लगाने के बाद भी सरकार से अभी तक कोई पैसा नहीं मिला है।

ज़्यादातर महिलाएं इसी गांव में रहकर काम करना चाहती हैं, भले ही काम और आमदनी दोनों कम हो। वहीं अंजली जैसी कुछ महिलाएं अपने बच्चों को बेहतर जीवन देने के लिए पलायन कर के किसी बड़े शहर जाना चाहती हैं, भले ही संघर्ष कितना भी हो।

"अगर हो सकेगा तो किसी के घर में काम करके अपने लड़का, लड़की को हॉस्टल में पढ़ाऊँगी। मुझे आगे बढ़ना पड़ेगा, कुछ काम करना पड़ेगा, कोई थोड़ी ना खिलाएगा मुझे और मेरे बच्चों को," अंजली ने सुबकते हुए कहा, "मैं कोलकाता जाऊँगी तो बच्चों के साथ नहीं रहूँगी, वहाँ उनके रहने की जगह थोड़ी मिलेगी। मैं किसी के घर काम करूँगी तो महीने के रुपए 10 हज़ार मिलेंगे।"

"मैं चुनाव ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हूँ, चुनाव ख़त्म हो जाए तो मैं कोलकाता चली जाऊँगी वहाँ किसी के घर में काम करूँगी," अंजली ने कहा।

ख़तरे के बावजूद क्यों जाते हैं लोग जंगलों में?

सुंदरबन में लगातार खरे होते भूक्षेत्र। फोटो: साधिका तिवारी

सुंदरबन बंगाल की खाड़ी से सटे हुए मैंग्रोव जंगल हैं जो भारत में पश्चिम बंगाल के उत्तर और दक्षिणी 24 परगना से शुरू होकर बांग्लादेश तक फैले हुए हैं, दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव जंगल। मैंग्रोव खारे पानी या अर्ध-खारे पानी में पाए जाते हैं, अक्सर जहाँ नदी किसी सागर में बह रही होती है, और मीठा पानी खारे पानी से मिलता है।

सुंदरबन के जंगलों में कई भिन्न प्रकार और प्रजाति के पेड़-पौधे, जीव-जंतु, जानवर और मछलियाँ पायी जाती है। सुंदरबन से सटे गाँवो में ज़्यादातर लोग जीवनयापन के लिए धान की खेती, मछली पालन और वन उपज पर निर्भर होते हैं।

जलवायु परिवर्तन जैसे कई अन्य कारणों के चलते, तटों के क़रीब स्थित खेतों की ज़मीन में खारापन समय के साथ बढ़ता जा रहा है जिसकी वजह से धान की उपज कम हो रही है, इसके सिवा ज़्यादातर लोगों के पास खेती के लिए ज़मीन भी नहीं है, ज़्यादातर किसान लघु भूमिधारक हैं। साथ ही मछलीपालन में भी मुनाफ़ा कम होता जा रहा है।

हर साल बाढ़ आने के बाद, तट से सटे खेत और डूबते जाते हैं, ज़मीन कम होती जाती है, जो ज़मीन बचती है वो बाढ़ के बाद महीनो खारी रहती है जहाँ धान उगना मुश्किल होता है। समय समय पर आने वाली प्रक्रतिक आपदाएँ जैसे मई 2019 में आया तूफ़ान अम्फान या नवंबर 2019 में आया तूफ़ान बुलबुल जो खेत, तालाब, घर सब तहस-नहस कर देते हैं।

ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं, या तो शहर जा कर काम करना, प्रवासी मज़दूर बनना या ख़तरे से वाक़िफ़ होते हुए भी अपनी जान जोखिम में डालकर इन जंगलों में जाना। जंगल में ज़्यादातर लोग वनोपज जैसे की लकड़ी या शहद या बेहतर मछली की तलाश में जाते हैं, जहाँ इनका सामना आदमखोर बाघ से होता है।

"जंगल के अंदर जाने के लिए तीन तरह की परमिट चाहिए होती है, मछुआरे का लाइसेंस, नाव का लाइसेंस और इंश्योरेंस या बीमा के कागज," नकुल ने बताया, "सरकार ठीक से लोगों का जन्म और मौत रिकॉर्ड नहीं कर पाती है यहां, बाघ ने किसको मारा ये कौन देखेगा।"

"हर दिन जब मेरा पति जंगल में जाता था, रोज़ लगता था की शायद आज ना आए, सबको पता है की ख़तरा है लेकिन सब उम्मीद करते हैं की शायद उनके साथ ऐसा नहीं होगा," भद्रा नया, 23, ने बताया, "और कोई कर भी क्या सकता है? आदमी पेट पालने के लिए सब करता है। या तो जंगल में जा कर खुद मरो, नहीं तो बच्चों को रोज़ भूखा देखो।"

"सुंदरबन इलाके में लगभग 30,000 परिवार रहते हैं, यानी लगभग 15 लाख लोग। इसमें से 10% पूरी तरह से वनोपज पर निर्भर हैं। कोई एक सरकार या संस्था यहां के हालात बदल नहीं पाएगी। बदलाव लाने के लिए जरूरी है की इन 30,000 परिवारों के लिए व्यवसाय के अन्य रास्ते खोले जाए," नकुल ने बताया।

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