नोटबंदी के बाद, भारत की आईटी राजधानी बेंगलुरु में, केवल किस्मत वालों को 10 दिन मिलता है काम
बेंगलुरु के कुरुबरहल्ली लेबर हब में, रोज़गार की तलाश में रोजाना सुबह लगभग 7.30 बजे दिहाड़ी मजदूर जमा होना शुरु हो जाते हैं। इनमें से ज्यादातर लोग निर्माण क्षेत्र के हैं। नोटबंदी से पहले अधिकांश श्रमिकों को महीने में 20-25 दिन काम मिलता था। लोगों ने बताया कि अब स्थिति बेहद खराब है।
बेंगलुरु: कुरुबरहल्ली भारत की तकनीकी राजधानी का एक भीड़भाड़ वाला इलाका है, जो संकरी सड़कों, गलियों, भारी ट्रैफिक, दुकानों और आगंतुकों से भरा रहता है। इलाके में सुबह 7.30 बजे से चहल-पहल शुरु हो जाती है।
यहां के श्रम केंद्र में सबसे पहले रोजगार की तलाश में आने वाले दिहाड़ी मजदूर होते हैं। किसी भी कार्य दिवस पर आप 1,000-1,500 श्रमिकों को काम के लिए चुने जाने की प्रतीक्षा करते हुए देख सकते हैं। ज्यादातर लोग प्लंबर, पेंटर, बढ़ई और राजमिस्त्री का काम करते हैं। महिलाएं मददगार के रूप में नौकरियों की तलाश करती हैं, जो कंक्रीट मिलाती हैं या ईंट ढोती हैं।
श्रमिक ठेकेदार, श्रमिकों दिन भर के लिए श्रमिकों की तलाश के लिए मोटरसाइकिल या ऑटो-रिक्शा से यहां तक पहुंचते हैं, जिनमें से ज्यादातर लोगों को वे चेहरे से पहचानते हैं। एक कुशल कामगार पुरुष के लिए आधिकारिक न्यूनतम वेतन प्रतिदिन 600 रुपये और महिलाओं के लिए 300 रुपये है। दोपहर तक, जिन्हें नौकरी मिलनी होती है, उन्हें मिल जाती है और दोपहर 2 बजे तक लेबर हब खाली हो जाता है।
सफाई और पलस्तर के काम के लिए कुरुबरहल्ली में प्रतीक्षा करने वालों में 36 साल के स्वामी थे। वह पांच साल पहले दक्षिण पश्चिम में 130 किलोमीटर दूर मंड्या जिले के पांडवपुरा से बेंगलुरु आए थे। एक अशिक्षित व्यक्ति अपनी तीन बेटियों को एक अच्छी ‘कॉन्वेंट’ शिक्षा देने के लिए पर्याप्त कमाई करना चाहता था। तीन बेटियों से एक शारीरिक रूप से विकलांग है और निरंतर देखभाल की आवश्यकता है।
स्वामी को अब सप्ताह में दो से तीन दिन के काम से ही संतुष्ट होना पड़ता है।उन्होंने कहा, " लोगों की दुआएं हैं कि इतना काम भी मिल जाता है। "
एक अकुशल श्रमिक स्वामी (बाएं से दूसरा), नौकरी के अवसरों की तलाश में दक्षिण-पश्चिमी कर्नाटक के मंड्या जिले से बंगलुरू आए थे। वे अपनी तीन बेटियों को बेहतर शिक्षा देना चाहते थे। स्वामी को अब सप्ताह में दो से तीन दिन के काम से संतुष्ट होना पड़ता है।
नवंबर 2016 में, मोदी सरकार ने भारत के मूल्य के अनुसार 86 फीसदी मुद्रा को वापस लेने का फैसला किया था, जिससे कैज़ुअल जॉब्स सेक्टर प्रभावित हुआ, जो नकद भुगतान पर चलता था, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 2017 की श्रृंखला में बताया है। तब तक, घरेलू कामगार स्वामी और उनकी पत्नी, दोनों मिलकर महीने में लगभग 25,000 रुपये कमा लेते थे। आज, वे सामूहिक रूप से प्रति माह 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच संघर्ष करते हैं। महीने में 20 दिन काम करने वाले स्वामी को अब 10 तक काम मिलता है।
करीब 50 लाख पुरुषों, ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से, ने नोटबंदी के बाद दो साल में नौकरियां खो दी हैं, जैसा कि अप्रैल 2019 की रिपोर्ट, द लेटेस्ट एस्टिमेट ऑफ जॉब लॉसेस में बताया गया है। यह रिपोर्ट सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट (सीएसइ), आजाद प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु द्वारा प्रकाशित किया गया है। यदि महिलाओं को शामिल किया जाना था, तो संख्या बढ़ जाएगी।
2016 में, शहरी कर्नाटक ने निर्माण क्षेत्र में लगभग 300,000-400,000 श्रमिकों की मेजबानी की, जैसा कि इंसट्टयूट ऑफ सोशल एंड इकोनोमिक चेंज में अर्थशास्त्र को प्रोफेसर, डी. राजशेखर कहते हैं। बेंगलुरु के निर्माण क्षेत्र ने परंपरागत 500,000 निर्माण श्रमिकों की मेजबानी की, जिसमें होसुर, धर्मपुरी, बीदर और गुलबर्गा, तुमकुर, रामनगर, कोलार जैसे पड़ोसी क्षेत्रों के लोग शामिल हैं, जैसा कि बंगलौर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर वेंकटरमनप्पा द्वारा किया गया 2016 के अध्ययन में कहा गया है। शहर में मेट्रो रेल निर्माण ने पड़ोसी राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु के दिहाड़ी मजदूरों को भी खींच लिया है।
नोटबंदी की घोषणा के बाद ये सभी श्रमिक प्रभावित हुए थे।
नोटबंदी के बाद उपजे हालात की छाया में भारतीय रोजगार पर 11-आलेखों की श्रृंखला का यह सातवीं रिपोर्ट है। आप पहले के रिपोर्ट यहां, यहां, यहां, यहां, यहां, यहां पढ़ सकते हैं। ये रिपोर्ट भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार को ट्रैक करने के लिए देश भर के श्रम केंद्रों से हैं। श्रमकेंद्रों से तात्पर्य ऐसे स्थानों से है, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरियों की तलाश में जुटते हैं। ये केंद्र देश के अनपढ़, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों में से 92 फीसदी कर्मचारियों को रोजगार देता है, जैसा कि सरकारी डेटा पर 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अध्ययन से पता चलता है। अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य में देखता है।
ऑल इंडिया मैन्यफैक्चरर ऑर्गनाइजेशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, चार साल से 2018 तक नौकरियों की संख्या में एक-तिहाई गिरावट आई है। सर्वेक्षण में 300,000 सदस्य इकाइयों में से 34,700 को शामिल किया गया था। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार केवल 2018 में, 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं और इनमें से ज्यादातर असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में थे।
कर्नाटक की श्रम शक्ति का 74 फीसदी अनौपचारिक क्षेत्र में
भारतीय जनता पार्टी ने अपने 2018 के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में, कर्नाटक में युवाओं के लिए रोजगार सृजन का वादा किया, हालांकि इसकी देश में सबसे कम बेरोजगारी दर है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में युवाओं के लिए प्रति वर्ष 15 लाख -20 लाख नौकरियों के निर्माण का वादा किया था। जनता दल (एस), राज्य के अन्य बड़े राजनीतिक खिलाड़ी, ने 10 लाख परिवारों के लिए नौकरियों का वादा किया था।
जुलाई 2018 में घोषित चीन के साथ प्रतिस्पर्धा ’योजना के तहत कांग्रेस और जद (एस) गठबंधन का लक्ष्य चार साल में 900,000 विनिर्माण रोजगार सृजित करना है।
कर्नाटक सरकार के कौशल विकास, उद्यमशीलता और आजीविका विभाग की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में अनौपचारिक क्षेत्र राज्य के कार्यबल का लगभग 74.01 फीसदी कार्यरत है। इन श्रमिकों में से, केवल 7 फीसदी ने 2011-12 तक कौशल प्रशिक्षण प्राप्त किया था। युवाओं (16-35 वर्ष की आयु) के बीच, केवल 9.4 फीसदी ने कौशल प्रशिक्षण प्राप्त किया।
निर्माण ( कृषि और उद्योगों के साथ ) राज्य में कुशल श्रमिकों के शीर्ष तीन नियोक्ताओं में से एक है। कुल कार्यबल का लगभग 7 फीसदी निर्माण कार्य में लगा हुआ है, और 55.7 फीसदी कृषि में।
ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ट्रेड यूनियन के कर्नाटक महासचिव अपन्ना (वह एक और नाम का उपयोग करते हैं) ने अनुमान लगाया कि वर्तमान में बेंगलुरु में 800,000 से 10 लाख निर्माण मजदूर हैं।
लोगों तक पहुंच नहीं रही सरकार की योजनाएं
श्रमिकों के बीच कौशल सिखाने और उनके हितों की रक्षा के लिए डिज़ाइन किए गए संस्थानों और सार्वजनिक योजनाओं की कोई कमी नहीं है। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) के 2013 के इस अध्ययन के अनुसार, कर्नाटक में लगभग 1,507 सार्वजनिक और निजी औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (ITI) और 289 पॉलिटेक्निक संस्थान हैं। लेकिन उनकी नामांकन क्षमता सिर्फ 68.9 फीसदी है।
ग्रामीण बेंगलुरु में 16 आईटीआई और एक पॉलिटेक्निक संस्थान है, जबकि शहरी बेंगलुरु ( जिसमें 5,000 से अधिक मध्यम और छोटे पैमाने के उद्यमों के साथ एशिया का सबसे बड़ा औद्योगिक क्लस्टर है ) जिसमें 60 पॉलिटेक्निक और 83 आईटीआई हैं।
राज्य ने मई 2017 में एक कौशल विकास, उद्यमिता और आजीविका विभाग की स्थापना की थी। इसने हर साल 500,000 युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए मुख्यमंत्री कौशल्या योजना (कौशल परियोजना) शुरू की।
सितंबर 2014 में, विभिन्न औद्योगिक कौशल में 988,014 ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना शुरू किया गया था, उनमें से, 695,283 को प्रशिक्षित किया गया है, लेकिन केवल आधे ( 324,956 ) को प्रमाणित किया गया है।
असंगठित क्षेत्र के निर्माण मजदूरों के कल्याण के लिए बिल्डिंग एंड द अदर कन्सट्रक्शन एक्ट (बीओसीडब्लू) को 2006 में कर्नाटक में लागू किया गया था। बीओसीडब्ल्यू बोर्ड के साथ पंजीकृत श्रमिक अपने बच्चों के लिए शैक्षिक अनुदान, टूलबॉक्स, गृह निर्माण सब्सिडी, चिकित्सा सहायता और बीमा और पेंशन, सहित अन्य के लिए पात्र हैं। सदस्यता के लिए श्रमिकों की लागत 25 रुपये की प्रारंभिक जमा राशि और 10. रुपये मासिक शुल्क है। इस योजना से पंजीकृत / लाभान्वित होने वाले मजदूरों की सही संख्या का पता नहीं लगाया जा सकता है।
अप्पन्ना ने कहा, लेकिन इन उपायों से सीमित पहुंच दिखाई देती है: संपूर्ण श्रमिक आबादी के 20 फीसदी से कम लोगों को कल्याणकारी लाभ और कौशल प्रशिक्षण प्राप्त होता है।
स्वामी ने बताया कि वह इन योजनाओं के बारे में कुछ नहीं जानते थे। "इन योजनाओं में नामांकन के लिए कौन परेशान हो सकता है?" उन्होंने कहा।
कुरुबरहल्ली लेबर हब में, यह पूछने पर कि अगर 2019 के आम चुनावों में वे किसे वोट दें तो नौकरी की स्थिति में सुधार होगा, तो अधिकांश कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस के लिए समर्थन की बात कही। मंजूनाथ जैसे कुछ दिहाड़ी मजदूरों ने हमें बताया कि "वे नोटबंदी और जीएसटी से बहुत ज्यादा नाखुश हैं, लेकिन भारत सरकार द्वारा सीमा पार से भारत की सुरक्षा के लिए खतरे से निपटने के तरीके से संतुष्ट हैं।"
नौकरी की तलाश... एक बुरे सपने की तरह
एनएसडीसी द्वारा अनुमानित 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक का निर्माण क्षेत्र राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 9 फीसदी योगदान देता है, और युवाओं का एक बड़ा नियोक्ता है। हालांकि, नोटबंदी ने रियल एस्टेट सेक्टर को खराब कर दिया है और निर्माण क्षेत्र को प्रभावित किया जैसा कि हमने पहले भी कहा था।
पिछले वर्षों में नोटबंदी से पहले, ज्यादातर श्रमिकों ने हमें बताया कि उन्हें काफी आसानी से नौकरी मिल जाती थी। एक श्रमिक ने हमें बताया कि, " काम मिलना एक बुरे सपने की तरह है। नोटबंदी ने हमारी आजीविका के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया। लेकिन कुशल श्रम की मांग अधिक है। "
52 वर्षीय उमेश निमार्ण क्षेत्र में काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों में से हैं, जिनकी कमाई नोटबंदी के बाद 33 फीसदी गिर गई है। वह प्रति माह 5,000 से 8,000 रुपये कमाते हैं और सप्ताह में केवल तीन से चार दिन काम पाते है। उनकी एक आंख में समस्या है, जिसका निदान किया जाना बाकी है और इस कारण वे हर तरह का काम नहीं कर पाते हैं। नोटबंदी से पहले, उन्होंने एक दिन के काम के बदले 600 रुपये या उससे अधिक कमाए थे । यह अब घटकर 400 रुपये हो गया है। उसकी पत्नी घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है और प्रति घर 1,500 रुपये 2,000 कमाती है। परिवार मिलकर महीने में लगभग 20,000 रुपये कमाता है।
नोटबंदी का प्रभाव आगे चल कर जीएसटी के साथ मिल गया और इसे नियोक्ताओं द्वारा भी महसूस किया जा रहा है। 46 वर्षीय निजार एक ईंट कारखाने में सुपरवाईजर के रूप में काम करते हैं। उनकी कंपनी को जीएसटी के कार्यान्वयन के बाद बिक्री में ‘भारी गिरावट’ का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उनके जैसे वरिष्ठ कर्मचारी को 2016 के बाद से वेतन में वृद्धि नहीं दी गई है।
48 वर्षीय मैकेनिकल इंजीनियर रंगनाथ कलप्पगौड़ा बेंगलुरु के बाहरी इलाके में देवनहल्ली में एक छोटी निर्माण कंपनी के मालिक हैं। नोटबंदी के बाद उनके पास अपने दैनिक वेतन श्रमिकों को भुगतान करने के लिए नकदी नहीं थी ( कुशल और अकुशल दोनों ) - और उन्हें अपने कार्यबल को कम करना पड़ा। 20 में से 14 मजदूर रह गए। वह अब अपने श्रमिकों को पहले के मुकाबले लगभग आधा भुगतान करता है - एक महीने में 10,000 रुपये से अधिक नहीं। अकुशल श्रमिकों के लिए राशि कम है।
महिला कार्यकर्ताओं के लिए मुसीबतों का दौर
महिला कार्यकर्ता कई और समस्याओं से निपट रही हैं। विमुद्रीकरण के बाद महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ा। “रोजगार में गिरावट आमतौर पर महिलाओं के बीच केंद्रित है। हमने इसे नोटबंदी के बाद देखा। उस गिरावट का पूरा खामियाजा महिलाओं को उठाना पड़ा, '' जैसा कि सीएमआईई ने कहा है है। सीएमआईई के अनुमान के अनुसार 1.1 करोड़ नौकरियों में से महिलाओं को 88 लाख या 80 फीसदी का नुकसान हुआ है।
करीब 30 वर्षीय नगम्मा, कुरुबरहल्ली पर हड़बड़ी में थी। उसकी चमकदार पीली साड़ी, गुलाबी ब्लाउज और हरी चूड़ियाँ उसके चेहरे पर थकावट और उन पर चिंता की लकीरों को छिपा नहीं पा रही थी। वह अनौपचारिक क्षेत्र में नौकरी के अवसरों में भारी गिरावट का सामना करने वाली लाखों महिला श्रमिकों में से हैं।
नोटबंदी से पहले, नगम्मा को महीने में 20 दिन काम मिलता था। यह अब घटकर 10 रह गया है। वह निर्माण स्थलों पर एक सहायक के रूप में प्रतिदिन लगभग 300 रुपये कमाती है और प्रति माह लगभग 3,000 से 4,000 रुपए तक कमाती है। उसका पति 10-12 दिनों तक काम करके 10,000 रुपये प्रति माह कमाता है। कमाई के अवसरों की हानि ने उसे अवसाद में भेज दिया है और उसे शराब का आदि बना दिया है। यह एक ऐसी आदत लग गई, जो उसकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बेकार कर देती है।
नागम्मा (बाएं) निर्माण स्थलों पर एक सहायक के रूप में 3,000 से 4,000 रुपये प्रति माह कमाती हैं। शिवगंगम्मा (दाएं) एक सहायक के रूप में काम करने से पहले कई घरों में घरेलू मदद का काम करती हैं।
इस तरह की कहानियां, हब में आने वाली कई महिलाओं की हैं। तीस वर्षीय शिवागंगम्मा का दिन सुबह 5 बजे शुरू होता है - वह कुरुबरहल्ली में कमला नगर के आसपास कई घरों में घरेलू मदद का काम करती है। इन कामों से उसे हर महीने 4,000 रुपये की कमाई होती है। वह इन कामों को सुबह 8 बजे तक पूरा कर लेती है और फिर कुरुबरहल्ली में एक सहायक की तलाश (ईंटों को उठाना, गड्ढों को भरना आदि) में लेबर हब तक जाती हैं । इन नौकरियों से उसे रोजाना लगभग 300 रुपये मिलते हैं। कुरुबारहल्ली से लगभग 2 किमी दूर, कमला नगर में अपने एक बेडरूम के फ्लैट का किराया देने के लिए उसके पास एक दिन में कई काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
बेंगलुरु के कुरुबारहल्ली लेबर हब में काम करने के लिए महिला श्रमिकों को चुना जाता है। नोटबंदी के बाद महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
कर्नाटक में असंगठित सेक्टर की स्थिति का अध्ययन करने वाले राजशेखर ने कहा, “दिहाड़ी मजदूरों के लिए काम करने की स्थिति दयनीय है, । उन तक पीने के पानी या शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहुंच नहीं है, बल्कि महिला मजदूरों पर भावनात्मक और यौन शोषण का भी एक अतिरिक्त बोझ है।”नाम न बताते हुए एक महिला कार्यकर्ता ने हमसे बात करते हुए बताया कि उसे काम पर परेशान किया गया था, लेकिन चुप रहना पड़ा क्योंकि वह अपने परिवार के लिए एकमात्र प्रदाता थी।
यह 11 रिपोर्टों की श्रृंखला में से यह सातवीं रिपोर्ट है । पिछली कहानियां: इंदौर, जयपुर, पेरुम्बवूर, अहमदाबाद, कोलकाता और लखनऊ, आप यहां पढ़ सकते हैं।
(रंगनाथ फ्रीलांस लेखक हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं। 101Reporters.com जमीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 2 मई, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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