'पुरुषों को जो कहना है कहें, मैं वही करती हूं जो मुझे करना है'
पटना: रामवती देवी (बदला हुआ नाम) को पहली बार जब पता चला कि बिहार के एक गांव की मुखिया महिला है तो वो हैरान रह गई। “मेरी तो समझ में ही नहीं आया कि कोई महिला नेतृत्व कैसे कर सकती है। जिस गांव में उसने सारी ज़िंदगी घूंघट में जी हो वहां पुरुषों पर या प्रभावशाली जातियों पर वो कैसे हुकुम चला सकती है?” पिछले महीने इंडियास्पेंड से बात करते हुए 50 वर्षीय रामवती देवी ने कहा।
साल 2006 में, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने राज्य की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की शुरुआत की थी ताकि अधिक से अधिक महिलाएं मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो सकें। बिहार, देश का पहला राज्य था जहां सबसे पहले महिलाओं के लिए पंचायतों में आधी सीटें आरक्षित की गई। अब जब राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के 2016 में शराबबंदी से लेकर छात्राओं के लिए फ़्री साइकिल देने महिलाओं को लुभाने वाले फ़ैसले सरकार का भविष्य तय करेंगे।
बिहार के ग्रामीण शासन में महिलाओं के लिए आरक्षण, लिंग भेद को कम कर रहा है, इन संस्थाओं में 70,400 महिलाएं ग्रामीण बिहार के लिए फ़ैसले करती हैं, जेंडर रिपोर्ट कार्ड 2019 के अनुसार। पिछले 14 साल में रामवती देवी ने अपने और दूसरी महिला नेताओं में आए बदलाव को देखा है- अपने पतियों और पुरुष रिश्तेदारों की रबर स्टैम्प से लेकर स्वत्रंत आवाज़ों तक।
रामवती देवी अब पटना ज़िले की एक ग्राम पंचायत की वार्ड मेम्बर हैं। उनके पास क़रीब दस साल का अनुभव है। बीते कुछ वर्षों में उन्हें एक एनजीओ के समर्थन का भी लाभ मिला है। फ़ैसले लेने में उनकी भागीदारी होती है, वह ब्लॉक स्तर की बैठकों में भाग लेती हैं और अक्सर मुखिया से मिलती हैं। “मैंने गर्भनिरोधक के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हाल ही में वार्ड में कंडोम भी बांटे। मर्दों को जो कहना है कहते रहें, हम वही करेंगे जो हमको करना है,” उन्होंने कहा।
पटना के सात और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के पांच गांवों में पंचायतों के लिए चुनी गई महिलाओं से बातचीत में हमने पाया कि अभी भी, पंचायतों की अनगिनत महिला नेता अभी भी पितृसत्ता और संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। कई महिला नेताओं के पास अभी भी जानकारियां, ट्रेनिंग आदि नहीं है ताकि वे आत्मविश्वास से भरा निर्णय ले सकें, स्थानीय शासन में महिलाओं को सलाह देने वाले विशेषज्ञों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इंडियास्पेंड को बताया।
बिहार के जेंडर इंडिकेटर बताते हैं कि यह राज्य राष्ट्रीय औसत से पीछे है - महिला साक्षरता दर 2005-06 में 37% थी जो 2015-16 में बढ़कर 50% हो गई, लेकिन फिर भी यह राष्ट्रीय औसत, 68.4% से कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार। श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी सभी राज्यों में सबसे ख़राब है। इसकी दर राष्ट्रीय औसत, 23.3% की तुलना में 4.1% है, नेशनल सैंपल सर्वे 2017 के अनुसार।
"महिलाओं के नाम सिस्टम में तो आ गए हैं, लेकिन उनकी आवाज़ अभी भी अनसुनी है," पटना में परसा बाज़ार की एक सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा कुमारी पासवान ने कहा। प्रतिमा, राज्य में हो रहे विधानसभा चुनाव में फुलवारी शरीफ़ निर्वाचन क्षेत्र से एक निर्दलीय उम्मीदवार हैं।
पंचायतों में शामिल होने के बावजूद राजनीति में कम महिलाएं
लैंगिक रूढ़ियों, मनोवैज्ञानिक और पारंपरिक बाधाओं, और शिक्षा, प्रशिक्षण और संसाधनों में असमानताओं के कारण दुनिया में हर जगह राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सीमित है। पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण से महिलाओं के सशक्त होने और राजनीति में नेता और वोटर के तौर पर उनकी भागीदारी में सुधार की उम्मीद थी।
हालांकि बिहार में वोट देने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन कुल मिलाकर राज्य की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम है। इसका पता राजनैतिक पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची से लगाया जा सकता है। नीतीश कुमार की अगुवाई वाले जनता दल (यूनाइटेड) ने 78 में से 18% सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा है, जो कि पहले दो चरणों में चुनाव लड़ रही हैं। जेडीयू की मुख्य प्रतिद्वंद्वी, राष्ट्रीय जनता दल ने 97 में से 14.4% महिलाओं को टिकट दिया है, चुनाव आयोग के शुरु के दो चरणों के आंकड़ों के अनुसार। इन आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स ने किया है। अन्य पार्टियों में, लोक जनशक्ति ने 93 में से 16% सीटों पर, भारतीय जनता पार्टी ने 75 में से 9% सीटों पर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 45 में से 9% सीटों पर और वामपंथी पार्टियों सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल) ने 22 में से 4.5% सीटों पर महिला उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं।
राज्य की निवर्तमान विधानसभा के 240 सदस्यों में से 12% महिलाएं हैं, 2010-2015 की विधानसभा की तुलना में कम। पिछली विधानसभा में 14% सदस्य महिलाएं थीं।
बिहार में 50% महिलाएं साक्षर हैं, एनएफ़एचएस-2015-16 के आंकड़ों के अनुसार। ग्राम पंचायत की सदस्य के रूप में चुनी गई ज़्यादातर महिलाएं न्यूनतम शिक्षा, कम या बिना राजनीतिक अनुभव वाली होती हैं, और उनकी भूमिका या उसके द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रमों और परियोजनाओं के बारे में उन्हें बहुत कम जानकारी होती है, विशेषज्ञों ने बताया। महिलाओं की तुलना में पुरष इन सभी पैमानों पर उनसे आगे हैं। दरअसल सामाजिक-राजनीतिक प्रणाली उनके पक्ष में है, जिससे वो बेहतर शिक्षा हासिल कर पाते हैं और राजनीति में बेहतर मुकाम हासिल कर पाते हैं।
तमिलनाडु में महिला पंचायत प्रमुखों के सामने आने वाली चुनौतियों का अध्ययन करने के लिए हुई इंडियास्पेंड छह भाग की श्रृंखला के दौरान हमने पाया था कि महिलाओं को अक्सर जातिवाद, वित्तीय बाधाओं, लिंगभेद और हिंसा का सामना करना पड़ता है। उनका सार्वजनिक जीवन उनके कार्यकाल के साथ ख़त्म हो जाता है, बिना किसी अन्य प्रशासनिक भूमिका या मुख्यधारा की राजनीति में कोई जगह बनाए बिना- जो अक्सर पुरुषों के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाता है।
प्रशिक्षण और सलाहकारों की ज़रूरत
साल 1993 में संविधान में 73वां संशोधन कर संसद में महिला आरक्षण बिल लाया गया। देश के कई राज्यों में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित कर दी गई, संशोधन के मुताबिक़ कम से कम। बिहार ने सबसे ज़्यादा, 50% सीटें आरक्षित की। उसके बाद 19 अन्य राज्यों ने भी 50% आरक्षण की पेशकश की।
चूंकि गांवों में अभी भी सामाजिक और राजनीतिक नेटवर्क का नियंत्रण पुरुषों के पास है, महिला मुखिया अक्सर वास्तविक निर्णय लेने वालों की रबर स्टैम्प बनकर रह जाती हैं -- पति या परिवार के अन्य पुरुषों के लिए -- जैसा कि तमाम दस्तावेज़ों में दर्ज है। हमने पाया कि अधिकांश महिला नेता अभी भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर मार्गदर्शन के लिए पुरुषों की ओर देखती हैं।
“जब भी महिला मुखियाओं को आधिकारिक बैठकों के लिए बुलाया जाना होता है, तब भी पत्र मुखियापति को संबोधित किया जाता है । इस व्यवस्था से सिस्टम को कोई समस्या नहीं है,” पटना के मसौरही ब्लॉक में लोकमध्यम नाम के एनजीओ से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता, प्रमिला कुमारी ने कहा।
इनमें से कुछ महिलाओं में 2016 के आसपास बदलाव आने लगा, 50% आरक्षण के कदम के एक दशक बाद, जब कई महिलाएं दूसरी बार चुनाव लड़ रही थीं, उन्होंने कहा, और स्वतंत्र निर्णय लेने वाली महिला पंचायत प्रमुखों के भी उदाहरण थे। "लेकिन अब भी मैं उनकी संख्या को मात्र 15% पर रखूंगी और इनमें से अधिकांश महिलाओं को विभिन्न ग़ैर सरकारी संगठनों या सहायता समूहों से कुछ बाहरी मार्गदर्शन मिलता है," उन्होंने कहा।
शिक्षा, डिजिटल साक्षरता और प्रशिक्षण की कमी एक महिला के निवेश के निर्णयों और निगरानी क्षमताओं को पंचायत प्रमुख के रूप में सीमित कर सकती है, लेकिन प्रशिक्षण और सही सलाह के ज़रिए इसे बदला जा सकता है, महिला पंचायत सदस्यों के साथ काम करने वाली संस्थाओं से जुड़ी, मधु जोशी ने कहा।
“ये महिलाएं आरक्षण के कारण चुनी जाती हैं। यहां तक कि मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट तक उनकी पहुंच और उसका उपयोग इनके लिए सीमित है। इसके अलावा, उन्हें परिवार के भीतर और समुदाय में पितृसत्ता की बाधाओं से भी जूझना होता है,” मधु जोशी ने कहा। "इन महिला नेताओं को खुद को मुखर करने के लिए सलाह, प्रदर्शन और सामूहिक प्लेटफार्मों की आवश्यकता है।"
'अगर मुझसे बात ही नहीं करेंगे तो मैं सीखूंगी कैसे?'
56 साल की रेणु देवी की पटना जिले की तिनेरि पंचायत की मुखिया हैं। वह एक पक्के मकान में रहती हैं, जिसमें एक तरफ़ एक दीवार है ताकि उस तरफ़ रहने वाले मुसहर समुदाय के लोगों को दूर रखा जा सके। मुसहर समुदाय, दलितों के बीच सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाला समुदाय है । दरवाज़े के अंदर, एक बोर्ड पर रेणु देवी का नाम लिखा है, मुखिया की मीटिंग के लिए एक कुर्सी और टेबल है, आने वालों के लिए प्लास्टिक की लाल कुर्सियां हैं।
जब हम उनसे मिलने गए, तो रेणु देवी ने घोषणा की कि उनके पति बाहर हैं और यह सुनकर आश्चर्यचकित हुईं कि हम उनसे मिलने आए हैं। वह प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठने के लिए आगे बढ़ी। वह मुखिया की कुर्सी पर क्यों नहीं बैठीं, हमने पूछा। क्योंकि वह [असली] मुखिया नहीं हैं, उन्होंने जवाब दिया।
दाई की सहायता से ज़मीन पर अपने बच्चों को जन्म देने को याद करते हुए, उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने पति को सुझाव दिया था कि गांव के आंगनबाड़ी केंद्र में महिलाओं के लिए प्रसवपूर्व देखभाल को और अधिक सुलभ बनाया जाए। "मैंने उनसे कहा, लेकिन कौन सुनता है, पुरुषों को इन समस्याओं से कोई मतलब नहीं है," उन्होंने कहा लेकिन तुरंत ही बात बदल दी। "वैसे भी वो अधिक शिक्षित हैं, वो बेहतर जानते होंगे, वो हमेशा सही काम करते हैं।"
प्रमिला कुमारी ने कहा कि इस अंतर का कारण यह है कि महिलाओं को शायद ही कभी आत्मविश्वास या खुद को महत्व देना सिखाया जाता है। "महिलाओं के परिवार के लोग उन्हें लगातार याद दिलाते हैं कि वे कितनी मूर्ख, अयोग्य और अनुभवहीन हैं, उन्हें सिखाया जाता है कि सामने न आएं," उन्होंने कहा। "पुरुष यह भी सुनिश्चित करते हैं कि उनकी पत्नियों के पास बस थोड़ी सी ही शक्ति या स्वतंत्रता रहे, इसलिए इन महिलाओं के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होना और कामकाज संभालना बहुत मुश्किल है।"
जो महिला मुखिया बुलंद हैं, वो भी शिकायत करती हैं कि ब्लॉक अधिकारी उन्हें गंभीरता से नहीं लते हैं। "उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी थी, उन्होंने मेरे पति से पूछा और मेरे सुझावों पर ध्यान नहीं दिया। उनकी धारणा यह थी कि मुझे कुछ समझ नहीं आएगा और मैं केवल आरक्षण की वजह से जीती हूं," पटना की चपौर पंचायत की मुखिया, अनामिका देवी (40) ने कहा। "अगर वे मुझसे बात ही नहीं करेंगे तो मैं कुछ भी कैसे सीखूंगी?"
समय लगा लेकिन लोगों ने अनामिका देवी को सुनना शुरू कर दिया क्योंकि "उन्हें पता है कि मैं काम करवा सकती हूं इसलिए उन्हें भी मेरी बात सुननी पड़ती है, यहां तक कि प्रभावशाली जातियों के लोगों को भी बात सुननी पड़ती है"। चपौर पंचायत में प्रभावशाली जातियों के तीन पुरुष और दो महिला वार्ड मेम्बर हैं।
"सिस्टम विशेष रूप से पिछड़ी जातियों की महिलाओं के ख़िलाफ है," सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा कुमारी पासवान ने कहा। "उन्हें लगता है कि वह आसानी से इन महिलाओं भयभीत और उनकी बात सुनने के लिए मजबूर कर सकते हैं।"
तमिलनाडु के कुड्डालोर ज़िले की एक हालिया रिपोर्ट से पता चला है कि एक दलित महिला पंचायत के प्रमुख एस राजेश्वरी को मीटिंग के दौरान फ़र्श पर बैठने के लिए कहा गया, जबकि बाकी लोग कुर्सियों पर बैठे थे। पटना की तिनेरी पंचायत की वार्ड सदस्य सुनीता कुमारी, अपने शुरुआती वर्षों में इसी तरह के अनुभवों के बारे में बताया। "जब मैं जीतने के बाद ग्राम सभा की पहली मीटिंग में शामिल हुई, तो भूमिहार [प्रभावशाली जाति] मुखिया ने मुझे वार्ड सदस्य होने के बावजूद फर्श पर बैठने के लिए कहा, मैंने उनसे कहा कि मैं फ़र्श पर नहीं बैठूंगी, आपके साथ बैठने का मेरा अधिकार है,” रेणु देवी के पति की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा। उस समय रेणु देवी के पति मुखिया थे।
महिलाएं बेहतर सुविधाएं सुनिश्चित करती हैं
एक रिसर्च से पता चला है कि महिलाओं के लिए आरक्षित पंचायतों में सार्वजनिक सुविधाओं जैसे पेयजल, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, उचित मूल्य की दुकानों आदि की बेहतर उपलब्धता देखने को मिली है।
"हमारे घर में लंबे समय तक नल का पानी नहीं था, हम मांग करते थे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।" मसौढ़ी ब्लॉक की 40 वर्षीय लीला देवी ने कहा। “तब मुझे एहसास हुआ - जो मेरा अधिकार है उसके लिए मुझे बार-बार क्यों मांग करनी? इसलिए मैंने चुनाव लड़ा और वार्ड सदस्य बन गई और सबसे पहले मैंने स्वीकृत धनराशि से अपने वार्ड में हर घर में नल का पानी पहुंचाने का काम किया।”
महिला नेता बुनियादी सेवाओं को प्राथमिकता देती हैं, सेंटर फ़ॉर केटेलाइज़िंग चेंज के 2015 में हुए एक अध्ययन के अनुसार। “जब मैं स्कूल में थी, तब हमारी क्लास में केवल दो लड़कियां थीं, किसी ने भी हमें पोषण, मासिक धर्म या परिवार नियोजन के बारे में नहीं बताया। मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी उसी तरह से बड़ी हो, जैसे मैं हुई, ” नाम न बताने की शर्त पर एक महिला मुखिया ने कहा। अब वह स्थानीय स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्रों के साथ बात कर रही हैं ताकि किशोरियों के लिए मुफ़्त सेनेटरी पैड उपलब्ध हो सकें।
हालांकि,महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत कार्यान्वित परियोजनाओं पर महिलाओं के राजनीतिक नेतृत्व के प्रभाव का आकलन करने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि जिन पंचायतों की मुखिया महिला हैं वहां इन कार्यक्रमों में ज़्यादा अनियमितताएं पाई गईं।
"यह भी याद रखना भी ज़रूरी है कि महिलाएं वित्तीय और डिजिटल साक्षरता की कमी के कारण विवश हैं, जो काफ़ी हद तक उन्हें शक्तिशाली लोगों के साथ उलझने और उन्हें चुनौती देने में रुकावट है," मधु जोशी ने कहा, "हालांकि, अध्ययन से यह भी पता चलता है कि महिलाओं का अनुभव जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, शासन में सुधार होता जाता है।"
"आरक्षण महिला मतदाताओं को खुश करने के लिए एक राजनैतिक कदम था, लेकिन राज्य में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी भी बड़ी संख्या में बढ़ रही है," सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा कुमारी पासवान ने कहा। साल 2000 तक पुरुषों और महिलाओं के बीच मतदान का अंतर 20% (पुरुषों के पक्ष में) था लेकिन 2015 के चुनाव में महिलाओं का मतदान 60% था जबकि पुरुषों का मतदान 53% रहा।
(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)
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