महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट के 388 गांवों को पर्यावरण संरक्षण से बाहर रखने की तैयारी
नई दिल्ली: महाराष्ट्र सरकार, पश्चिमी घाट के 388 गांवों को खनन और औद्योगिक गतिविधियों से संरक्षण नहीं देना चाहती है। सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के तहत इंडियास्पेंड को जो जानकारी मिली है उसके मुताबिक, महाराष्ट्र सरकार ने इस बारे में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा है। इस प्रस्ताव के मुताबिक, ‘पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों’ की सीमा में 11% की कटौती होगी (केंद्र सरकार के पहले के प्रस्ताव की तुलना में)। इन क्षेत्रों का इस्तेमाल उन कामों के लिए होगा जिन्हें सरकार "राज्य के विकास के लिए आवश्यक" मानती है।
अगर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, महाराष्ट्र सरकार के इस प्रस्ताव को मंज़ूरी दे देता है तो पश्चिमी घाट का जो हिस्सा महाराष्ट्र में संरक्षित घोषित किया जाने वाला है वो 17,340 वर्ग किलोमीटर से घटकर 15,359.40 वर्ग किलोमीटर रह जाएगा। जिन गांवों को संरक्षण से बाहर किये जाने का प्रस्ताव है उनमें से कुछ गांव ऐसे हैं जहां चल रही कंपनियों को प्रदूषण फैलाने और बिना पर्यावरणीय अनुमति के काम करने पर चेतावनी दी जा चुकी है। यहां भारतीय गौर बड़ी संख्या में पाए जाते हैं और ये गांव बाघों और हाथियों के महत्वपूर्ण गलियारे (कोरिडोर) भी हैं।
जैव विविधता से समृद्ध पश्चिमी घाट, कई बारहमासी नदियों का स्रोत है और पूरे भारतीय प्रायद्वीप में दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के लिए महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में करीब 24.5 करोड़ लोग रहते हैं। ये इलाका वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों के लिए भी महत्वपूर्ण है जो केवल इसी इलाके में पाई जाती हैं।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की मंज़ूरी मिलने के बाद इन क्षेत्रों को संरक्षित करने का निर्णय महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके बाद यहां खनन, पत्थरों के निकालने और उनकी कटाई, रेत खनन और प्रदूषणकारी उद्योगों पर रोक लग जाएगी।
पश्चिमी घाट के बारे में, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की तरफ़ से 4 अक्टूबर, 2018 को जारी किये गए मसौदे की अधिसूचना में महाराष्ट्र के 2,133 गांवों को संरक्षित घोषित करने का प्रस्ताव किया गया था (ऐसे इलाके जो जैविक रुप से समृद्ध हैं, कम विखंडित हैं, जहां जनसंख्या घनत्व कम है और वे संरक्षित इलाके जो वर्ल्ड हैरिटेज घोषित हैं और बाघों और हाथियों के गलियारे हैं)। हालांकि, महाराष्ट्र राज्य सरकार ने केवल 2,092 गांवों को ही पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने का प्रस्ताव केंद्र को दिया है (जैसा कि सूचना के अधिकार के तहत इंडियास्पेंड को मिली रिपोर्ट में बताया गया है)।
राज्य सरकार ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि बाहर किये गए 388 गांव पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इलाकों की सीमा के अंदर नहीं हैं और कुछ गांवों को इसलिए छोड़ दिया गया है क्योंकि वे खनन गांव थे या पहले से ही औद्योगिक इलाके घोषित हो चुके थे। महाराष्ट्र ने इस लिस्ट में 347 ऐसे गांवों को जोड़ने का भी प्रस्ताव किया है जिन्हें पहले वर्गीकृत नहीं किया गया।
एक बार जब किसी क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील या इकोलोजिकली सेंसेटिव एरिया (ईएसए) घोषित कर दिया जाता है, तो वहां चल रही सभी खनन गतिविधियों को अंतिम अधिसूचना की तारीख़ से पांच साल के अंदर या मौजूदा खनन पट्टे के ख़त्म होने पर (जो भी पहले हो) चरणबद्ध तरीके से बंद कर दिया जाता है। सभी नए ‘ रेड’ श्रेणी या ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों और किसी भी मौजूदा उद्योग के विस्तार की इजाज़त नहीं होती है।
महाराष्ट्र सरकार का ये प्रस्ताव केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में परियोजनाओं को मंज़ूरी देने के पिछले निर्णयों के ही अनुरूप है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2018 की रिपोर्ट में बताया था कि जून 2014 और मई 2018 के बीच नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के चार साल के कार्यकाल में नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड-लाइफ ने देश के संरक्षित और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में 500 से अधिक परियोजनाओं को मंज़ूरी दी थी। अगर पिछली सरकार से तुलना करें तो यूपीए सरकार ने 2009 से 2013 के बीच 260 परियोजनाओं को मंज़ूरी दी थी।
इसी तरह, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने रेलवे की 800 हेक्टेयर के इलाके में फैली और 19,400 करोड़ रुपये (2.8 बिलियन डॉलर) लागत की 13 लंबित परियोजनाओं को वन परमिट मांगने की प्रक्रिया से छूट दी थी। इस बारे में इंडियास्पेंड ने जुलाई 2019 की अपनी रिपोर्ट में बताया था।
पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र के रेखांकन में देरी
पश्चिमी घाट के संरक्षण पर के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व वाले हाई लेवल वर्किंग ग्रुप की 2013 की रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 4 अक्टूबर, 2018 को एक मसौदा अधिसूचना में, पश्चिमी घाट के 56,825 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया था।
हालांकि, यूपीए सरकार के रिपोर्ट मंज़ूर करने के छह साल बाद भी, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल (इन राज्यों के इलाके पश्चिमी घाट में आते हैं) अंतिम ईएसए अधिसूचना पर सहमति देने में असमर्थ रहे।
Source: October 4, 2018 draft notification of the union environment ministry Note: Kerala's ESA was not included in this notification since they had originally not accepted Kasturirangan report on ESA demarcation, and classified areas by their own verification.
पश्चिमी घाट में ईएसए की सीमा-रेखा के लिए अक्टूबर 2018 के मसौदा अधिसूचना पर केंद्र और छह राज्यों के बीच परामर्श चल रहा है और महाराष्ट्र का प्रस्ताव इसी प्रक्रिया का हिस्सा था।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, ईएसए पर 2014, 2015, 2017 और 2018 में चार मसौदा अधिसूचनाएं प्रकाशित कर चुका है। हर बार, राज्यों ने ईएसए में छूट या बदलाव की मांग की है। इसी बीच, क्षेत्र में इन्फ़्रास्ट्रक्चर के विकास के कारण पश्चिमी घाट पर काफ़ी दबाव पड़ा है।
अध्ययनों से पता चलता है कि पश्चिमी घाट में ग्रीन कवर कम हो रहा है। इंडियास्पेंड ने जून 2016 की रिपोर्ट में बताया था कि बेंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (IISc) के एक अध्ययन में पाया गया कि 2006 से 2016 के बीच पश्चिमी घाट के उत्तरी, मध्य और दक्षिणी इलाकों में घने वन क्षेत्र में क्रमशः 2.84%, 4.38% और 5.77% की कमी हुई है।
संवेदनशील गांव
कस्तूरीरंगन कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि पश्चिमी घाट क्षेत्र का लगभग 60% हिस्सा मनुष्यों, कृषि और जंगलों के अलावा दूसरे पेड़-पौधों से भरा हुआ है। इसका 40% हिस्सा प्राकृतिक रूप से समृद्ध इलाका है जिसमें लगभग 37% (~ 60,000 वर्ग किलोमीटर) जैविक रूप से समृद्ध है।
महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव में संरक्षित इलाकों से बाहर किये जाने वाले गांव, कस्तूरीरंगन रिपोर्ट के 'प्राकृतिक रूप से समृद्ध' वर्गीकरण से मेल खाते हैं और कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में इनमें से ज़्यादातर ईएसए सूची में शामिल थे।
कोंकण में, राज्य सरकार ने अपने प्रस्ताव में सिंधुदुर्ग ज़िले की डोडामार्ग तालुका को ईएसए के दायरे से पूरी तरह हटा दिया है। हालांकि, 2013 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि राज्य सरकार को वन्यजीव गलियारों और जल संसाधनों के संरक्षण के लिए सावंतवाड़ी-डोडामार्ग इलाके को ईएसए घोषित करना चाहिए।
महाराष्ट्र रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर के आंकड़ों के अनुसार, ईएसए से बाहर प्रस्तावित कोल्हापुर के सभी गांव, 40% से लेकर 99% तक प्राकृतिक रूप से समृद्ध हैं।
Source: 2015 report on ecologically sensitive areas of the Western Ghats in Maharashtra, accessed through the Right to Information Act Note: As per the Kasturirangan report, natural landscapes have been characterized as areas that are not dominated by human settlements, agriculture or plantations, other than forests.
कोल्हापुर और सिंधुदुर्ग ज़िलों में ईएसए से बाहर रखे गए गांवों में से कुछ में भारतीय गौर बहुतायत में पाए जाते हैं, और ये कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के बीच घूमने वाले बाघों और हाथियों के वन्यजीव गलियारों का हिस्सा हैं।
इस सूची में रत्नागिरी ज़िले के गांव भी शामिल हैं, जैसे कि कुंभावदडे और विल्ये, जो नाणार तेल-रिफ़ाइनरी और पेट्रोकेमिकल परिसर के करीब हैं। इस रिफ़ाइनरी का काम, क्षेत्र में बाग़वानी पर इसके पर्यावरणीय प्रभाव के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों के विरोध के बाद रोक दिया गया था। जिन गांवों पर इस रिफ़ाइनरी का असर पड़ता वहां विश्व प्रसिद्ध अल्फांसो आम के साथ-साथ काजू, सुपारी और पान के पत्ते भी उगाये जाते हैं।
पार्क और अभ्यारण्य के लिए महाराष्ट्र सरकार की अधिसूचना के अनुसार शाहुवाड़ी तालुका में निवाले और राधानगरी तालुका में सावरदे (प्रस्ताव में ईएसए के रूप में वर्गीकृत नहीं हैं) को चंदौली राष्ट्रीय उद्यान और राधानगरी वन्यजीव अभ्यारण्य के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।
महाराष्ट्र के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया मांगने के लिए एक टेक्स्ट मैसेज हाई लेवल वर्किंग ग्रुप की सदस्य, सुनीता नारायण को भेजा गया था, (इस वर्किंग ग्रुप ने ही पश्चिमी घाट में ईएसए पर कस्तूरीरंगन रिपोर्ट तैयार की थी) लेकिन हमें उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
कोल्हापुर के एक पर्यावरण कार्यकर्ता और विदन्यान प्रबोधिनी के संयोजक उदय गायकवाड़ ने कहा, “माधव गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट को ख़ारिज करना और इन गांवों को ईएसए से अलग करना, खासकर हाल ही में ज़िले में आई बाढ़ को देखते हुए, भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। उन्होंने कहा कि ईएसए से कोल्हापुर के गांवों को बाहर करने से ज़िले के वन्यजीवों और जल संरक्षण को ख़तरा हो जाएगा।
माधव गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट को पश्चिमी घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल ने तैयार किया था। ये रिपोर्ट 31 अगस्त, 2011 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गई। रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के 142 तालुकों को उनकी पारिस्थितिक नाज़ुकता के आधार पर, पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों को ईएसज़ेड 1, 2 और 3 के रूप में रेखांकित करने की सिफारिश की गई थी। रिपोर्ट में ESZ1 क्षेत्रों में खनन, बांधों और निर्माण पर पूरी तरह से रोक लगाने की भी सिफ़ारिश की गई थी।
खनन गांवों को बाहर रखा गया
आरटीआई से जो जानकारी हमें मिली उसके मुताबिक, दिसंबर 2018 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भेजे अपने प्रस्ताव में महाराष्ट्र ने इन गांवों को ईएसए नहीं माना था क्योंकि ये या तो खनन गांव थे या केंद्र सरकार के मसौदा अधिसूचना में ईएसए क्षेत्र से बाहर रहे या महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम (MIDC) के क्षेत्रों में शामिल हैं या फिर 'स्पेशल ज़ोन' हैं। इसमें ये नहीं बताया गया कि 'स्पेशल ज़ोन' क्या है।
388 गांवों में से, रायगढ़, पुणे और रत्नागिरी ज़िलों के 55 गांव एमआईडीसी औद्योगिक क्षेत्र के तहत आते हैं, 19 खनन गांव हैं और बाकी ज़्यादातर दूर बसे गांव हैं।
पश्चिमी घाट में स्थित इन गांवों में खनन अवैध रूप से पैसा कमाने का एक बड़ा ज़रिया बन गया है और इन अवैध कार्यों का विरोध करने वाले स्थानीय लोगों को भी नहीं बख्शा जाता है। इकोलॉजिस्ट और आईआईएससी, बेंगलुरु में सेंटर ऑफ़ इकोलोजिकल साइंसेज़ के संस्थापक, माधव गाडगिल कहते हैं, “सरकार प्राकृतिक संसाधनों की लूट को आसान बनाने के लिए कस्तूरीरंगन रिपोर्ट को खारिज करना चाहती है।"
नाम छुपाने की शर्त पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, "सभी छह राज्यों ने अपने प्रस्ताव सौंप दिये हैं और हम उनकी जांच कर रहे हैं, कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में की गई मूल सिफ़ारिशों के साथ उनकी तुलना कर रहे हैं।"
इंडियास्पेंड ने राज्य के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया के लिए, महाराष्ट्र के वन विभाग के सचिव विकास खड़गे से संपर्क किया। खड़गे ने इंडियास्पेंड को महाराष्ट्र राज्य जैव विविधता बोर्ड के सदस्य-सचिव जीत सिंह से बात करने को कहा।
सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया, "मैंने जून में ही बोर्ड का प्रभार संभाला है जबकि प्रस्ताव पहले ही भेज दिया गया था। हो सकता है कि प्रस्ताव में ईएसए की सूची से खनन गांवों को इसलिए बाहर रखा गया हो क्योंकि वहां खनन पहले से ही चल रहा हो या फिर जल्दी ही शुरु होने वाला हो। केंद्र हमारे प्रस्ताव की जांच कर रहा है।”
महाराष्ट्र के इस प्रस्ताव पर कुछ सवाल, हमने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय में निदेशक स्तर के अधिकारी सतीश गार्कोटी और अतिरिक्त सचिव रवि अग्रवाल को ई-मेल किये हैं। हमें उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली है, अगर हमें उनकी प्रतिक्रिया मिलती है तो हम इस रिपोर्ट को अपडेट करेंगे।
पर्यावरण नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं उद्योग
ईएसए से बाहर किये गये गांवों की सूची के विश्लेषण के अनुसार (जो अदालती आदेशों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों से मिली जानकारी के आधार पर मिली है), कोल्हापुर ज़िले के चांदगढ़, राधानगरी और शाहूवाड़ी तालुका में भोगोली, धांगरवाड़ी, दुर्गमनवाड़ी और गिरगांव गांवों में चार खदानें काम कर रही हैं।
आदित्य बिड़ला ग्रुप की प्रमुख मेटल कंपनी, हिंडेल्को इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, धांगरवाड़ी और दुर्गमनवाड़ी से बॉक्साइट ओर का खनन करती है। हालांकि, अक्टूबर 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी को दुर्गमनवाड़ी में काम बंद करने का आदेश दिया था क्योंकि कम्पनी पर बिना विभागीय वन्यजीव मंज़ूरी के राधानगरी वन्यजीव अभ्यारण्य के पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र की सीमाओं के भीतर काम करने का आरोप था। पर्यावरण मंत्रालय के एक आदेश के बाद 6 मार्च, 2019 को, खदानों की पर्यावरणीय मंज़ूरी को 'ठंडे बस्ते में' डाल दिया गया था।
नवंबर 2018 में, महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एमपीसीबी) ने वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन के मामले में हिंडेल्को को धनगरवाड़ी में अपनी खदान बंद करने के लिए कहा। हिंडेल्को ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एमपीसीबी के आदेश को चुनौती दी लेकिन अदालत ने कंपनी को अपने खनन कार्यों को रोकने के लिए कहा। कोर्ट ने एमपीसीबी को अपना आदेश वापस लेने और हिंडेल्को को सुनवाई का मौक़ा देने को भी कहा।
इंडियास्पेंड ने इस मामले में हिंडेल्को का पक्ष जानने के लिए ई-मेल किया, जिसमें हाईकोर्ट के आदेश के बाद एमपीसीबी द्वारा की गई कार्रवाई की स्थिति के बारे में और उनकी कोल्हापुर की खदानों की स्थिति के बारे में टिप्पणी मांगी गई। कंपनी ने अब तक जवाब नहीं दिया है।
एमपीसीबी के उप-क्षेत्रीय अधिकारी प्रशांत गायकवाड़ ने कहा कि कोल्हापुर में अन्य खदानों को या तो उल्लंघन के कारण बंद कर दिया गया है या वो इसलिए बंद हो गई हैं क्योंकि उनमें अब प्राकृतिक संसाधन बचे ही नहीं हैं।
माधव गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट में, 2011 में ही कह दिया गया था कि पश्चिमी घाट "इलीट वर्ग के लालच और ग़रीबों के अपनी स्थिति से बाहर निकलने के प्रयास में प्रभावित हो रहा है। ये एक बड़ी त्रासदी है, क्योंकि ये पहाड़ी क्षेत्र दक्षिण भारत के पर्यावरण संतुलन और अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।” इस रिपोर्ट में पश्चिमी घाट में पर्यावरण के नियमों के पालन में गम्भीर ढिलाई से निपटने के लिए सख़्त कदम उठाने की मांग की गई।
(निखिल, दिल्ली के एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पर्यावरण नीति, वन्य जीवन और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर लिखते हैं।)
ये आलेख मूलत: अंग्रेजी में 09 नवंबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।