मिनी आंगनवाडियों में सबसे गरीब और सबसे ज्यादा वंचितों को मदद मिल सकती है
पल्हारा, ओडिशा: 15 अगस्त 2019 की सुबह, जब सारा देश आज़ादी का जश्न मना रहा था तब ओडीशा के जयपुरा गांव के 70 लोग चासागुरुजंग गांव के एक छोटे से सामुदायिक भवन में इकट्ठा हुए। 30 साल के नौजवान कुना मुंडा के साथ आए इन लोगों की मांग थी कि इनके गांव में एक मिनी आंगनवाड़ी केंद्र खोला जाए। जहां उनके बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल की जा सके।
ओडीशा के अंगुल ज़िले के पल्हारा ब्लॉक में एक छोटे से घर में रहने वाले कुना मुंडा बताते हैं कि उनके गांव में आंगनवाड़ी केंद्र ना होने की वजह से उनके बच्चों की सेहत की देखभाल नहीं हो पाती है, जिसकी वजह से उनके गांव के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। आस-पास जो आंगनवाड़ी केंद्र है, वहां पहुंचने के लिए नदी पार करनी पड़ती है। मुंडा सवाल करते हैं कि वो अपने चार साल के बेटे को कैसे नदी पार के उस आंगनवाड़ी केंद्र में भेजें।
चौथे राष्ट्रीयपरिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े बताते हैं कि पल्हारा जैसे इलाक़ों में रहने वाले सबसे ग़रीब सामाजिक समूहों जैसे अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों की पहुंच आंगनवाड़ी केंद्रों तक बहुत कम हैं। अनुसूचित जनजाति के ज़्यादातर लोग जंगलों के बीच रहते हैं, इसलिए उनकी पहुंच इन आंगनवाड़ी केंद्रों तक और भी मुश्किल हो जाती है।
अनुसूचित जनजाति की आबादी 10 करोड़ चालीस लाख के आसपास है। ये भारतकी कुल जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत है। इंडियास्पेंड ने फ़रवरी 2018 में बताया था कि अनुसूचित जनजाति की कुल आबादी का 45.9 प्रतिशत हिस्सा सबसे ग़रीब लोगों की श्रेणी में आता है। ये किसी भी दूसरे सामाजिक समूह के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा है।
एनएफएचएस के आंकड़ें बताते हैं कि 2015-16 में अनुसूचित जनजाति के पांच साल से कम उम्र के 19.7 प्रतिशत बच्चों का कद उनकी उम्र के हिसाब से कम था। जबकि अनुसूचित जाति में ये आंकड़ा 16.4 प्रतिशत था। सामान्य जातियों में ये 11.9 प्रतिशत था।
वंचित आबादी के लिए मिनी आंगनवाड़ी केंद्रों का महत्व
एनएफ़एचएस-4 के आंकड़ों से पता चलता है कि निम्न से मध्यम आय वर्ग के बच्चों को भोजन की ख़ुराक, सेहत की जांच और दूसरी आईसीडीएस सुविधाएं मिलने की सम्भावनाएं ज़्यादा रहती हैं। 2015-16 में 63.3 प्रतिशत सबसे ग़रीब वर्ग (कुल 40% में से 21 %) के बच्चों के स्वास्थ्य की जांच नहीं हुई इनसे थोड़ा बेहतर आय वर्ग के 54.9 प्रतिशत बच्चे इन सुविधाओं से वंचित रहे। ज़्यादा आमदनी वाले लोग आईसीडीएस के मुक़ाबले निजि सेवाओं को पसंद करते हैं।
एनएफ़एचएस-4 के आंकडों के मुताबिक 2015-16 में अनुसूचित जनजाति के बच्चों को दूसरे सामाजिक समूहों के मुक़ाबले बच्चों को अधिक अनुपात में भोजन की ख़ुराक, स्वास्थ्य जांच और प्री-स्कूल शिक्षा मिली। लेकिन अनुसूचित जनजाति में इन सुविधाओं की ज़रूरत जितनी बड़ी आबादी को है, उसे देखते हुए ये काफ़ी कम है। मसलन, अनुसूचित जनजाति की आबादी का लगभग आधा (45.9%) सबसे ग़रीब और 24.8% ग़रीब की श्रेणी में आते हैं तो एनएफ़एचएस-4 के आंकड़ों के मुताबकि उनके सिर्फ़ 60.4% को ही आईसीडीएस के तहत भोजन की ख़ुराक मिली है।
प्रशासनिक कमियां
जिस मीटिंग की बात हमने शुरु में की वो ग्राम पंचायत के सदस्यों और सामुदायिक नेताओं ने बुलाई थी। मीटिंग का मकसद था, लोगों की समस्याएं सुनी जाएं और उन्हें मिनी आंगनवाड़ी की आवश्यकता के बारे में जागरुक किया जाए।
चासगुरुजंग के 47 वर्षीय सरपंच शशांक शेखर नाइक ने कहा कि वो दो छोटे आंगनवाड़ी केंद्रों का प्रस्ताव भेज रहे हैं। उनकी प्राथमिकता दूर-दराज़ के इलाकों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों के बच्चों को मिनी आंगनवाड़ी केंद्र उपलब्ध कराना है। यहां के बच्चों को कभी घर ले जाने के लिए राशन नहीं मिलता है। माता-पिता के लिए उन्हें हर दिन आंगनवाड़ी केंद्र में ले जाने का मतलब है उनकी दिहाड़ी का नुकसान।
सरकार 1975 से आईसीडीएस के तहत एक पूरक पोषण कार्यक्रम चला रही है, जिसके तहत ओडिशा की गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों के लिए घर ले जाने के लिए राशन - छटुआ (पिसा हुआ अनाज), अंडे और दालें दी जाती हैं। इस योजना के तहत आंगनवाड़ी केंद्रों पर बच्चों के लिए गर्म, पका हुआ भोजन और साथ ही तीन से छह साल की उम्र के बच्चों के लिए प्री-स्कूल शिक्षा की भी व्यवस्था की जाती है। अगस्त 2019 में आई इंडियास्पेंड की रिपोर्ट में इसकी जानकारी दी गई थी।
यह बच्चे के शुरुआती 1000 दिन के पोषण के लिए मददगार साबित होता है। यही वह समय है जब बच्चे की शारीरिक वृद्धि और मानसिक विकास सबसे तेज़ होते हैं।
साल 1995-96 में आईसीडीएस को सभी के लिए उपलब्ध कराया गया ताकि इसका फ़ायदा देश के कोने-कोने में सभी समुदायों और विकास खंडों तक पहुंच सके। हालांकि ग़रीब, ख़ास तौर से वंचित समूहों के लोगों को इसका पूरा फ़ायदा नहीं मिल पा रहा है। फ़रवरी 2018 में इंडियास्पेंड की रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया गया था। यहां तक कि अच्छा प्रदर्शन करने वाले ओडीशा जैसेवराज्य में भी समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले लोग इसके फ़ायदे से वंचित हैं क्योंकि वो दूर-दराज़ के इलाक़ों में रहते हैं।
चारागुरुजंग ग्राम पंचायत के सदस्य 44 वर्षीय मुंडा सौंतो बताते हैं कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उनके गांव से नहीं हैं, जिसकी वजह से इस केंद्र में जाने वाले उनके बच्चों को सबसे अंत में खाना खिलाया जाता है। सौंतो आगे कहते हैं कि सहायक नर्सों, दाइयों और आशा कार्यकर्ताओं ने शायद ही कभी उनके गांव का दौरा किया हो।
31 साल की निरुपमा नायक उदयपुर गांव की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। जयापुर गांव भी उन्हीं के अंतर्गत आता है। निरुपमा बताती हैं कि उनके केंद्र में दूरस्थ इलाकों से बच्चों को आना होता है मगर उनकी उपस्थिति बेहद कम है। निरुपमा के मुताबिक़ “वे केंद्र तक पहुंचने के लिए हर दिन 3 किलोमीटर की यात्रा अकेले नहीं कर सकते। इसलिए वो पके हुए गर्म भोजन से वंचित रह जाते हैं और उन्हें प्री-स्कूल शिक्षा भी नहीं मिल पाती ”
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक कोऑपरेशन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट के आंकड़ों के अनुसार, सरकार ने 2007 में 23 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 116,848 मिनी आंगनवाड़ी केंद्रों को मंजूरी दी थी। वर्तमान में कितनी मिनी आंगनवाड़ियों का संचालन हो रहा है, इसका कोई आंकड़ा नहीं है।
2005 तक, आईसीडीएस के तहत मिनी आंगनवाड़ी में कुल छह सेवाओं में से एक (पका हुआ गर्म भोजन) दिया जाता था। 2007 में, मानदंडों को संशोधित किया गया ताकि सभी छह सेवाएं इन केंद्रों में दी जा सकें।
पल्हारा के ग्रामीण आंगनवाड़ी केंद्र चाहते हैं लेकिन इसमें एक प्रशासनिक अड़चन है। कुना मुंडा का गांव जयापुर एक और ग्राम पंचायत के साथ जुड़ा है। आधी आबादी इस दूसरे गांव में रहती है। जिसका मतलब है कि जयापुर गांव के पास मिनी आंगनवाड़ी केंद्र के लिए ज़रूरी 150 लोगों की आबादी नहीं है। ग्रामीणों ने यहां दो मिनी आंगनवाड़ी केंद्र बनाने का प्रस्ताव रखा है। दोनों गांवों के लिए एक-एक केंद्र।
स्थिति कुछ ऐसी है कि पंचायत सदस्य भी इस बात को लेकर निश्चित नहीं थे कि क्या मुंडा के गांव की ये समस्या चासागुरुगंज की पंचायत से सम्बंधित है, जहां ये मीटिंग हो रही थी या फिर उन्हें दूसरी पंचायत में जाना चाहिए, जयापुर गांव जिसका हिस्सा है।
अंगुल के जिला कलेक्टर, मनोज मोहंती ने बताया कि, “हमने सरकार को प्रस्ताव भेजा है कि दूरस्थ इलाकों में जहां आंगनवाड़ी केंद्र नहीं हैं वहां मिनी आंगनवाड़ी केंद्र खोले जाएं। इन मिनी आंगनवाड़ी केंद्रों की दूरी इतनी होनी चाहिए कि बच्चे पैदल चलकर वहां पहुंच सके। ये प्रस्तवा विचाराधीन है और सरकार इसे जल्द ही मंजूरी देगी।”
लेकिन आईसीडीएस की योजनाओं की देखरेख करने वाली अंगुल जिले की बाल विकास परियोजना अधिकारी रेणु पती को इसकी कोई जानकारी नहीं हैं। रेणु को इस प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए था लेकिन वो इससे अनजान हैं। रेणु ने बताया कि उन्हें मिनी आंगनवाड़ी के लिए अभी तक कोई प्रस्ताव नहीं मिला है। उन्होंने किसी भी अन्य प्रश्न का उत्तर देने से इनकार कर दिया।
सरकारी बोझ कम, स्वास्थ्य में सुधार
वंचित समुदायों में पोषण की पहुंच की कमी सबसे अधिक महसूस की जा सकती है। उदाहरण के लिए, 2013 में, 19 शिशुओं की मौत कुपोषण की वजह से हो गई थी, जब ओडिशा सरकार ने कमजोर आदिवासी समूहों (अनुसूचित जनजाति के बीच सबसे अधिक वंचित) के विकास के लिए एक विशेष परियोजना चलाई थी। इस परियोजना के तहत, बेहद कम वजन वाले 216 बच्चों की पहचान की गई। वे बेहद गम्भीर कुपोषण से पीड़ित थे, लेकिन इनमें से 60 बच्चों को किसी भी अस्पताल में नहीं भेजा गया। इसका ज़िक्र 2017 की सीएजी की रिपोर्ट में मौजूद है, जो विशेष रूप से कमजोर समूहों पर नवीनतम रिपोर्ट है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण को मिटाने के लिए छोटी परियोजनाओं के ज़रिये कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए हैं।
बच्चों और परिवारों की मदद करने के अलावा, मिनी आंगनवाड़ी केंद्र सरकार का भी बोझ कम कर सकते हैं। वर्तमान में, पोषण पुनर्वास केंद्र अत्यधिक कुपोषित बच्चों और माओं का सहारा बने हुए हैं। जो ओडिशा में प्रति बच्चे और मां पर प्रति दिन 125 रुपये खर्च करते हैं। ओडीशा में एक कुपोषित बच्चे को उसकी मां के साथ, पोषण पोषण केंद्र में कम से कम 15 दिनों के लिए रखा जाता है, और उनके पोषण का ध्यान रखा जाता है।
जनवरी 2019 में, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता निरुपमा नायक ने तीन बच्चों को गांव से 40 किमी दूर पल्हारा ब्लॉक के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के पोषण पुनर्वास केंद्र में भेजा। दो बच्चे रेड जोन में थे - लम्बाई के अनुपात में बहुत कम वजन के साथ गंभीर कुपोषण का संकेत था - और तीसरा बच्चा ऑरेंज जोन में था, जो मध्यम कुपोषण दिखा रहा था। अगर इनके घर-गांव के आसपास आंगनवाड़ी केंद्र होता तो इन बच्चों और उनकी माओं को कुपोषण का शिकार होने से बचाया जा सकता था।
(अली इंडियास्पेंड रिपोर्टिंग फेलो हैं।)
( यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 11 सितंबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है। )