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राजस्थान में पंचायत स्तर पर चुने गए 60 फीसदी प्रतिनिधियों के लिए अब अगला चुनाव संभव नहीं होगा। ऐसा इसलिए है कि राज्य सरकार के नए कानून में पंचायत स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए शैक्षिक योग्यता अनिवार्य कर दी गई है। अध्यादेश के जरिए लाए गए कानून में ग्राम समूह स्तर पर प्रतिनिधि संस्था जिला परिषद के लिए कम से कम सदस्य को 10 वीं पास होना जरूरी होगा। वहीं पंचायत समिति स्तर पर सरपंच के लिए आठवीं पास होना जरूरी कर दिया गया है।

नए कानून से कम से कम 47 फीसदी महिला प्रतिनिधि अगली बार चुनाव लड़ने के लिए पात्र नहीं होगी। साल 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में महिला साक्षरता दर केवल 53 फीसदी है। इस मामले में न्यायालय ने तत्काल किसी तरह के हस्तक्षेप से इंकार कर दिया है। ऐसे में नए कानून का असर स्थानीय स्तर पर हो रहे चुनावों पर पड़ेगा। चूंकि समाज में शिक्षा की दर लिंग, वर्ग और जाति से जुड़ी हुई है। ऐसे में यह बहस छिड़ गई है कि नए कानून से समाज में पिछड़े लोगों पर प्रतिकूल असर होगा। जबकि उच्च वर्ग के लोगों के लिए गवर्नेंस में पहुंचना कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा।

राजस्थान राज्य चुनाव आयोग की रिपोर्ट से हमने साल 2010 के चुनावों के आधार पर पंचायत समिति के लिए चुने गए प्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता की पड़ताल की है। जिसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों का अलग से विवरण दिया गया है।

चार्ट-1 साल 2010 में राजस्थान की पंचायत समिति के लिए चुने गए प्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता

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चार्ट-2 साल 2010 में राजस्थान की पंचायत समिति के लिए चुने गए प्रतिनिधियों की शैक्षणिक योग्यता फीसदी में

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Source: Rajasthan State Election Commission

यह अभी प्रमाणित होना बाकी है कि अगर ज्यादा से ज्यादा जन प्रतिनिधि शिक्षित होंगे, तो उनका गवर्नेंस कहीं बेहतर होगा। हाल ही जारी किए गए एक रिसर्च पेपर में यह बहस खड़ी की गई है कि क्या स्थानीय स्तर पर कम शैक्षणिक योग्यता रखने वाले प्रतिनिधियों से सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित होती है। ऐसे में राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में कम साक्षरता दर होने और नया कानून लागू होने से राज्य की लोकतांत्रिक गुणवत्ता में बदलाव हो सकता है। राजस्थान की साक्षरता दर 67 फीसदी है। जो कि राष्ट्रीय औसत 74 फीसदी से कम है। राज्य चुनाव आयोग के एक सेवानिवृत अधिकारी द्वारा दायर की गई याचिका के अनुसार केवल 5 फीसदी महिलाएं ग्रामीण इलाकों में ऐसी है, जिन्होंने 5वीं से ज्यादा शिक्षा हासिल की है।

भारत में चुनाव लड़ने की पात्रता के लिए पहले से ही कई तरह की बाध्यताएं है। इनमें से आरक्षण जैसे प्रावधान तो कानूनी रूप समानता देने का मौका देते हैं। वहीं न्यायालय से दोषी पाए गए उम्मीदवार को अपात्र भी करते हैं।

साल 1994 में हरियाणा सरकार ने कानून के जरिए यह प्रावधान किया कि सरपंच, जिला परिषद और पंचायत समिति के चुनावों में ऐसे उम्मीदवार भाग नहीं ले सकते , जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं। जावेद बनाम हरियाणा सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी राष्ट्रीय हित का हवाला देते हुए उस कानून पर मुहर लगा दी। जिससे यह भी तय हुआ कि चुनाव लड़ना मौलिक अधिकार नहीं है। इस फैसले की बड़े पैमाने पर न केवल आलोचना हुई , बल्कि कई मामलों में यह भी देखने को मिला कि लोगों ने चुनाव लड़ने के लिए अपनी बेटियों को दूसरे को गोद दे दिया। उच्चतम न्यायालय के फैसले को हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को सही ठहराने में इस्तेमाल किया गया है।

राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने इस फैसले को सही ठहराते हुए उस निर्देश का हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था कि पंचायत स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए शौचालय होना जरूरी है। उनके अनुसार शौचालय बनाने और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के प्रावधान से बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव होंगे। उनके अनुसार पिछले दो साल में राज्य में दो लाख शौचालय बने थे, लेकिन नए कानून के बाद एक महीने के अंदर 6 लाख शौचालय बन गए।

लोकतंत्र हर व्यक्ति को यह मौका देता है कि उम्मीदवार को चुनने के लिए वह अपना मत दे सके। यह लोकतांत्रिक मूल्य इतिहास में शासित वर्ग द्वारा बनाए सामाजिक गठजोड़, भूमि स्वामित्मव और दूसरे बाधाओं को तोड़ते हैं। ऐसे में राजस्थान सरकार द्वारा शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य करने से उनके ऊपर इस भावना को खत्म करने का आरोप लग सकता है। यह कानून वैसे भी अध्यादेश के जरिए पारित किया गया है। जिसका मतलब है कि नए कानून के लिए चुने हुए जन-प्रतिनिधियों से चर्चा नहीं की गई है। भले ही मुख्यमंत्री का इरादा नेक हो, पर जिस हड़बड़ी में अध्यादेश लाया गया है, वह न कई सवाल खड़े करता है, बल्कि उसके प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।

(लेखक से आप इस ई-मेल पर संपर्क कर सकते हैं'shruti.viswanathan@gmail.com)

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