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भारतीय जन-भाषायी सर्वेक्षण (पीएलएसआई), भारतीय भाषाओं का ज़मीनी स्तर पर सर्वेक्षण करने वाले एक संगठन के अनुमान के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी की वैश्विक विकास दर अग्रेजी के वैश्विक विकास से बहुत आगे निकल गईं है, विशेष रूप कमजोर समुदायों द्वारा बोली जाने वाली भाषा।

"पिछले 50 वर्षों में, दुनिया की हिंदी भाषी आबादी 260 मिलियन से 420मिलियन तक बढ़ गई है। इसी अवधि के दौरान, अंग्रेजी भाषी आबादी 320 मिलियन से 480 मिलियन हो गई है। ये आंकड़े केवल उन लोगों की ओर संकेत करते हैं जो अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा कहते हैं । इनमे दूसरी भाषा के रूप में व्यावसायिक उपयोग के लिए अंग्रेजी बोलने वाले लोग शामिल नहीं है, "गणेश डेवी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, पीएलएसआई ने कहा।

हिन्दी बोलने वालों में भारी उछाल आने की काफी हद तक यह वजह भी है कि भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में आबादी (260 मिलियन लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा कहते हैं) में वृद्धि हुई है और विश्व में हिंदी भाषी प्रवासियों का विस्तार हुआ है।

अमेरिका 2011 जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार, वहाँ दक्षिण एशियाई भाषाओं में 2000 और 2011 के बीच उच्च वृद्धि का अनुभव हुआ; हिंदी में 105% की वृद्धि हुई, जबकि मलयालम और तेलुगु में 115% की वृद्धि हुई ।

भारत में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भाषाओं का विकास एक बड़ी कीमत पर आया है: पीएलएसआई के अनुसार ,भारत में लगभग 250 भाषाओं , पिछले 50 साल में गायब हो गई हैं । भारत में अब किसी भी अन्य देश की तुलना से कहीं अधिक 197 लुप्तप्राय भाषाएँ है।

भारत, दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक, सैंकड़ो भाषाओँ का घर है जो मुख्य रूप से चार भाषा परिवारों, अर्थात् द्रविड़, इंडो-आर्यन, ऑस्ट्रो -एशियाई और चीन-तिब्बत से संबद्ध रखती है। संस्कृत, एक शास्त्रीयऔर भारत की सबसे पुरानी साहित्यिक भाषा,जो ऋग्वेद के समय से है वह भी कुछ सदियों से लुप्त होती जा रही है।

प्रो डेवी के अनुसार, भाषा पर संकट का वर्णन करने के कई तरीके हैं (नीचे बॉक्स देखें ) । संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को), के अनुसार 10,000 से कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली किसी भी भाषा को , "संभावित खतरे में" माना जाता है। हर संभावित खतरे में मानी जाने वाली भाषा का जरूरी नही कि तत्काल विलुप्त होने का खतरा भी होता है। हालांकि, वह संख्या उसके उस कगार पर होने को इंगित करता है।

अब हम भारत और दुनिया भर में लुप्तप्राय भाषाओं को देखते हैं।

यूनेस्को के अनुसार, भारत में 197 भाषाएं गंभीर रूप से लुप्त होने के संकट की सूचना है जिसमे से 81 लुप्तप्राय होने की चपेट में हैं , जिसके उपरांत निश्चित रूप से संकट में (63) ,गंभीर रूप से लुप्तप्राय (6),गंभीर संकट में (42) और पहले से ही विलुप्त हो चुकी है (5)।

नोट: आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के प्रत्येक की एक ही भाषा है नाइकी जिसे दोनों राज्यों के लिए गिना गया है ।

भारत का एक केंद्र शासित प्रदेश, अंडमान और निकोबार,11 गंभीर रूप से संकटग्रस्त भाषाओं, जिनमे मुख्य रूप से आदिवासी बोलियाँ हैं , के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है। राज्यों में, सात लुप्तप्राय भाषाओं के साथ मणिपुर है जिसके उपरांत सात भाषाओं के साथ हिमाचल प्रदेश है।

संकटग्रस्त विश्व भाषाओं के यूनेस्को एटलस 2010 में दुनिया भर की लगभग 2500 लुप्तप्राय भाषाओं की सूची है ।

जैसा कि हमने कहा कि भारत, अमेरिका (191) और ब्राजील (190) के बाद 197 लुप्तप्राय भाषाओं के साथ सूची में सबसे ऊपर है। अमेरिका जहाँ मुख्य रूप से अमेरिकी अंग्रेजी बोली जाती है कई स्वदेशी भाषाओं औरबोलियों का गृह है , जो विलुप्त होने के संकट में हैं; 74 "गंभीर खतरे' में हैं और 54 पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं। स्पैनिश , संयुक्त राज्य अमेरिका में दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है

पापुआ न्यू गुएना में 1,000 से अधिक जीवित भाषाएँ हैं जिससे यह सर्वाधिक भाषाएँ बोले जाने वाला देश बन गया है ।

भारत में अंग्रेजी एक सम्पन्न भाषा है और उभरती पीढ़ी द्वारा व्यापक रूप से इस्तेमाल की जा रही है , जो देशी या क्षेत्रीय भाषाओं के विलुप्त होने के संकट के अग्रणी कारणों में से एक है।

डॉ दीपक पवार,सहायक प्रोफेसर, नागरिक शास्त्र एवम राजनीति विभाग, मुंबई विश्वविद्यालयसहायक जो मराठी अभ्यास केन्द्र, मुंबई (एक नागरिक समाज संगठन जो मराठी भाषा के संरक्षण और विकास के लिए कार्यरत है ) के अध्यक्ष हैं कहते हैं 'अंग्रेजी के प्रसार से ...भारतीय भाषाओं और विश्व की भाषाओं का भविष्य खतरे में पड़ गया है। अंग्रेजी ज्ञान और रोजगार की भाषा के साथ-साथ इंटरनेट की प्राथमिक भाषा बन गई है। डिजिटल क्षेत्र की प्रमुख सामग्री अब अंग्रेज़ी है, और ,इसलिए अन्य भाषाएँ हाशिए पर हो गई हैं । लोगों ने इन भाषाओँ को रसोई(गँवार/घरेलू) भाषाएँ मानना शुरू कर दिया है। "

प्रो डेवीकहते हैं : "यूनेस्को का आकलन त्रुटियों से भरा है। इसमें मैतेई (मणिपुरी), खासी और मिजो भी शामिल हैं जो मणिपुर, मेघालय और मिजोरम राज्यों की मुख्य भाषाएं हैं। यूनेस्को की सूची को प्रवृत्तियों के एक संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए न की किसी ठोस तथ्य प्रमाण पत्र के रूप में। हमें हमारे अपने मूल्यांकन की जरूरत है।"

भारतीयों को अपनी ही मातृभाषा सीखने या लिखने की आवश्यकता नही लगती है। इसका अर्थ है कि उन्नत ज्ञान इन भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। इसलिए, अन्य भाषाएँ अनिवार्य रूप से अनुवाद की भाषा बन गई हैं। एक भाषा का अस्तित्व इस पर निर्भर करता है कि उसका भाषाई समुदाय अपनी भाषा के लिए जगह बनाने के विषय में कितना मुखर है , पवार कहते हैं।

उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं पर संलाप सामान्यतः साहित्य केंद्रित रहा है, जिसे बदलना होगा क्योंकि एक भाषा सार्वजानिक यह सार्वजनिक क्षेत्र में मरने के बाद भी साहित्य में योगदान कर सकती है।

" हमें इस मानसिकता से बाहर आना होगा कि भाषाएँ अपने दम पर विकसित होती है और यह सुनिश्चित करें की इसके विकास के लिए एक संस्थागत तंत्र है," पवार कहते हैं । "भाषा का विकास एवम योजना, भाषा के संरक्षण का एक अभिन्न हिस्सा हैं। हर भाषाई समुदाय को अपनी भाषा को बढ़ावा देने का अधिकार है, और हमें भाषा का विकास सुनिश्चित करने के लिए एक आम सहमति बनाने के लिए सामुदायिक स्तर पर, नागरिक समाज और राजनीतिक स्तर पर कड़ी मेहनत करनी होगी। "

लगभग एक सदी से भारत में भाषाओं की कोई उचित गणना नहीं की गई है। पिछला व्यापक प्रयास आयरिश भाषाई विद्वान जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया -जिन्होंने 1894 और 1928 के बीच भारत में पहला भाषाई सर्वेक्षण किया जिसमे उन्होंने 189 भाषाओं और कई सौ बोलियों की सूची बनाई।

यह एक सामान्य विश्वास है कि लिपि रहित भाषाएँ विलुप्त होने के गंभीर संकट में होती हैं । प्रोफेसर डेवी ने एक अन्य दृष्टिकोण पेश किया है कि : "यहां यह याद रखना आवश्यकहै कि लिपि के बिना भाषा ज़रूरी नही सिर्फ एक बोली ही होती है। कई ताकतवर भाषाएँ आज अस्तित्व में हैं जिनकी उनकी खुद की लिपि नही है। अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश सभी को इसी वर्ग में गिना जा सकता है। इन दोनों के बीच का अंतर, एक और अधिक संरचनात्मक पहचान का विषय है। ग्रियर्सन का सर्वेक्षण, औपनिवेशिक प्रशासनिक अवसरवादिता को ध्यान में रखते हुए किया गया था। और, इस प्रकार, इसमें अंततः बहुत कम भाषाओँ और बहुत अधिक बोलियों का उल्लेख भर कर के रह गया। "

भारत में विलुप्त होने के संकट का सामना कर रही भाषाएँ

WordMix

(Critically Endangered Languages in India; Source: LokSabha)

पीएलइसआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में 780 "जीवित भाषाएँ " हैं। इस सर्वेक्षण के आधार पर,पीएलइसआई के अनुसारखानाबदोश समुदायों की भाषाएं ( जो औपनिवेशिक युग के दौरान आपराधिक जनजातियां मानी जाती थी, अब अधिसूचित जनजातियों के रूप में जानी जाती हैं) और भारत में तटीय समुदायों की भाषाओं को भाषा नुकसान के मामले में सबसे आगे माना है। आधी सदी पहले, ऐसी 190 जनजातियों ने स्वयं अपनी भाषाओं में से लगभग 120 के होने की सूचना दी थी , अब उनमे से अधिकतम 80 ही अपनी मामूली सी शब्दावली याद कर पाती हैं (जैसे रिश्तेदारी का सम्बोधन , रंगो का सम्बोधन, महीने और दिनों के नाम और सप्ताह के दिन आदि)।

भारत के विशाल समुद्र तट के समीप स्थिति इससे अधिक खराब है। वहाँ, संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल मुख्य भाषाओं ने लगभग पूरी तरह से ही पारंपरिक और स्वदेशी भाषाओं की जगह ले ली है।

हाल के वर्षों में प्रमुखता पाने वाली भारतीय भाषाएँ

प्रो डेवी के अध्ययन के अनुसार, कुछ भाषाओं में हाल के दिनों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। हिन्दी इस चार्ट में सबसे ऊपर है।

बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और अंडमान में और नेपाल और सूरीनाम जैसे सूदूर क्षेत्रों में बिहारी प्रवासियों द्वारा विदेशों में बोली जाने वाली भोजपुरी, एक और तेजी से बढ़ती हुई भाषा है।

बढ़ती आबादी के कारण, आदिवासी भाषाओं में से कुछ में, उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बोली जाने वाली भिल्ली , में 1991 और 2001 के बीच , 90% की वृद्धि का पता चलता है।

लगभग 35 गैर-अनुसूचित (जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं) भाषाओं में जनसंख्या में वास्तविक वृद्धि की तुलना में स्पष्ट रूप से उच्च विकास की मात्रा का पता चला है। इनमें से ज्यादातर, उन लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ है जिन्होंने हाई-स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की है और अब संस्कृति और भाषा पर ध्यान दे सकते हैं।

सरकार क्या कर सकती है?

भारत सरकार ने "भारत की लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण" नाम से एक योजना आरम्भ की है। मैसूर स्थित, भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल), संकट की मात्रा के आधार पर कम से कम 10,000 वक्ताओं द्वारा बोली जाने वाली मातृभाषाओं /भारतीय भाषाओं की सुरक्षा, संरक्षण और प्रलेखन पर काम करता है।

यूजीसी ने हाल ही में 9 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और 11 राज्य विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिए केंद्र बनाए हैं। जनजातीय कार्य मंत्रालयने उत्कृष्टता के बड़ौदा स्थित भाषा रिसर्च सेंटर को उत्कृष्ट केंद्र के रूप में मान्यता दी है। इसके अलावा, प्रो डेवी के अनुसार, भारत की जनसांख्यिकी ने मातृभाषाओं का तेज़ी से सर्वेक्षण शुरू कर दिया है।

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Source: UNESCO

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