पश्चिम बंगाल: साल 2020 में ही दो बड़े तूफ़ान-- अम्फान और बुलबुल ने पश्चिम बंगाल में कई इलाकों में भारी नुक्सान किया। लोगों के खेत, मछली पालन के तालाब, व्यवसाय और घर, सब तबाह हो गया। पश्चिम बंगाल का प्राकृतिक आपदाओं से जूझना नई बात नहीं है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसी आपदाएँ प्रदेश में बढ़ती जा रही हैं जिनका सीधा असर यहां के रहवासियों की आजीविका पर पड़ता है। इस ही के साथ राज्य में प्रतिवर्ष बाढ़ में लोगों के खेत डूब जाते हैं, खेती में मुनाफ़ा कम होता जा रहा है, साथ ही जो लोग जंगलों पर निर्भर हैं उनके लिए भी जीवनयापन मुश्किल होता जा रहा है।

ऐसे में पश्चिम बंगाल से नौकरियों की तलाश में बाहर जाने वाले लाखों मज़दूरों में एक बड़ा हिस्सा क्लाइमट माइग्रेंट्स, या जलवायु परिवर्तन के चलते पलायन करने को मजबूर लोगों का है। यानी, रोज़गार के नए मौक़े ज़रूरत से काफ़ी कम हैं। साथ ही पारंपरिक व्यवसाय जो अलग-अलग इलाक़ों में लोग कई पीढ़ियों से करते आ रहे हैं वो अब या तो जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों की वजह से लाभकारी नहीं बचे हैं या किए ही नहीं जा सकते हैं।

ये खबर, हमारी पश्चिम बंगाल में पलायन पर सिरीज़ का दूसरा हिस्सा है, जो कि जलवायु परिवर्तन की वजह से राज्य से होने वाले पलायन पर केंद्रित है और बताती है कि किस तरह से बंगाल में क्लाइमट माइग्रेंट्स या जलवायु परिवर्तन के चलते पलायन करने को मजबूर लोगों की संख्या लगतार बढ़ रही है। राज्य में बढ़ती बेरोज़गारी पर केंद्रित इस सिरीज़ की पहली खबर को आप यहां पढ़ सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ

अम्फान और बुलबुल तूफ़ानों का सबसे ज़्यादा असर पश्चिम बंगाल के दक्षिणी ज़िलों में हुआ, ख़ासकर पूर्वी मिदनापुर, दक्षिण 24 परगना, पूर्वी 24 परगना, हावड़ा, हुगली और कलकत्ता शामिल थे। कई लोगों का इस तूफ़ान में सब कुछ खत्म हो गया, घर, खेत, और मछलियां, सब कुछ।

अम्फान के बाद राज्य सरकार ने पीड़ितों को घर बनाने और खेती में हुए नुक्सान के लिए मुआवज़े कि घोषणा की थी। लेकिन ये राशि अभी भी कई पीड़ितों तक नहीं पहुँच पायी हैं।

अपने घर के बाहर बैठी महिला जिसका घर अम्फान में तहस नहस हो गया था। फोटो: साधिका तिवारी

"मेरा घर टूट गया, खेत का पूरा धान बर्बाद हो गया पर सरकार ने सिर्फ़ एक तिरपाल दिया, और कुछ भी नहीं," 52 वर्ष के निमाइ मंडल ने बताया जो दक्षिण 24 परगना में रहने वाले किसान हैं और उनकी तीन बीघा ज़मीन है, "मैं पंचायत में गया, बीडीओ (खंड विकास अधिकारी) के पास गया, बहुत चक्कर लगाया पर नुक़सान का कोई मुआवज़ा नहीं मिला।"

बंगाल की खाड़ी समुद्री तूफ़नो के लिए जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के सबसे सक्रिय भागों में से एक बन चुकी है। पिछले 20 सालों में अम्फान इस इलाके का सबसे शक्तिशाली सूपर-साइक्लोनिक तूफ़ान था। ऐसे तूफानों की नित्यता और तीव्रता, दोनो ही समय के साथ बढ़ रहे हैं, जिसका कारण जलवायु परिवर्तन है। इस इलाक़े में पिछले पाँच साल में ऐसे तूफ़ानो में 32% की बढ़त हुई है।

बंगाल में एक बड़ा हिस्सा, ख़ासकर समुद्री इलाक़ों में रहने वाले लोग मछलीपालन पर निर्भर हैं। तूफ़ान में फ़िशरी भी तहस नहस हो जाती हैं। "निचले इलाक़ों में ज़मीन का खारापन बढ़ता जा रहा है, इसकी वजह से मीठे पानी की मछलियों का उत्पादन कम हो रहा है," इस इलाक़े के जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे, शौमित्रा दास ने बताया, "लोग मीठे पानी के लिए बारिश पर निर्भर रहते हैं जो कि अनियमित होती जा रही है।"

"पहले मछली बड़ी होती थी अब छोटी मछलियाँ ही पैदा हो पाती हैं। मेरे पिताजी के समय पहले जैसे 20-25 किलो मछली हो जाती थी, तो अब सिर्फ़ 5 किलो ही हो पाती है," पाँचु अधिकारी, 45, ने बताया, जिनके यहाँ कई पीढ़ियों से मछली पालने का काम हो रहा है। "बहुत नुक़सान होता है, हर साल कुछ न कुछ (ख़राब) हो जाता है, पिछले साल तूफ़ान में सब मछलियाँ चली गयी, कभी सब मछलियाँ मर जाती है कोई इंफेक्शन हो जाए तो," पाँचु ने बताया, "अम्फान में रुपए 40-45 हज़ार का नुक़सान हुआ।"

पीढ़ियों से मछली पालन का काम करने वाले पाँचु अधिकारी, 45, जिन्हें अब इस व्यवसाय में फ़ायदा नहीं हो रहा। फोटो: साधिका तिवारी

निचले इलाकों में बढ़ता खारापन सिर्फ़ मछली पालन ही नहीं, खेतों को भी प्रभावित कर रहा है। कई इलाक़ों में कृषि की बढ़ती दिक्कतों का ये भी एक बड़ा कारण है।

कृषि की दिक़्क़तें-- घटते खेत, घटती उपज, सरकारी समर्थन का अभाव

"खेतों का बढ़ता खारापन धान की उत्पादकता कम कर रहा है, कुछ खेत इतने खारे हो चुके हैं कि किसान इन्हें कम दाम पर बेचने को मजबूर है। ऐसे खेतों के ख़रीददार झींगा (प्रॉन) मछली का उत्पादन कर रहे किसान होते हैं क्योंकि प्रॉन का उत्पादन खारे पानी में बेहतर होता है," शौमित्रा ने बताया।

"खेती में कभी-कभी ख़र्च भी नहीं निकलता, साल भर में रुपए 20-22 हज़ार कमाना भी मुश्किल है। मैं 30 साल से खेती कर रहा हूँ, हर साल मुनाफ़ा कम हो रहा है," 65 वर्षीय किसान निताई मंडल ने बताया जिनके पास दो बीघा ज़मीन है और इनके घर में पांच सदस्य हैं। निताइ को अपनी धान की उपज के लिए मंडी में एक क्विंटल के लिए रुपए 700-750 मिलते हैं।

"कभी तूफ़ान आ जाता है, बारिश ठीक से नहीं होती, सब धान ख़राब हो जाता है, सिंचाई की भी दिक्कत है," निताइ ने बताया, "पर नुक़सान होगा तो भी खेती ही करेंगे, ज़मीन कैसे छोड़ देंगे और कोई रास्ता नहीं है, कोई और काम नहीं आता"।

जिन इलाक़ों में बाढ़ आती है वहाँ हर वर्ष मानसून में ज़मीन का एक हिस्सा पानी में डूब जाता है। ज़्यादातर किसान लघु भूमिधारक हैं जिनकी ज़मीन पहले से ही कम है।

यहाँ सब बेकार है, कोई पैसा नहीं है, सिर्फ़ मेहनत है, प्रशांत मंडल, 35, कहते हैं जो नागपुर में नौकरी करते थे और लॉकडाउन के बाद 24 दक्षिण परगना में अपने गाँव वापस आए हैं। फोटो: साधिका तिवारी

"मेरे गाँव के पास नदी है, हर साल बाढ़ के बाद ज़मीन कटती जाती है, खेती में पैसा नहीं है, खाने-पीने के लिए कुछ नहीं बचता है," अजित मंडल ने बताया जो माल्दा से मज़दूरी ढूँढने दिल्ली जाते हैं। "वहाँ हमको रुपए 500 एक दिन का मिलता है, इतना पैसा होता है कि घर पर रुपए 5-10 हज़ार भेज सकें।"

जिन लोगों के पास अपनी ज़मीन है, उनके लिए फिर भी उम्मीद बाक़ी है। जो दूसरों की ज़मीन पर काम करते हैं, उनके लिए मुश्किलें और भी ज़्यादा हैं।

"मैं लॉकडाउन में वापस आया, नागपुर से, आने के बाद धान की खेती शुरू की," प्रशांत मंडल, 35, ने बताया जो दिल्ली, मुंबई में भी मज़दूरी का काम करते हैं, "यहाँ सब बेकार है, कोई पैसा नहीं है, सिर्फ़ मेहनत है, इसलिए मै गया था, फिर लॉकडाउन की मजबूरी में वापस आना पड़ा।"

"वापस आने के बाद अम्फान आ गया, वहाँ रुपए 10-15 हज़ार कमा लेता था अब यहाँ जितना धान होता है उसमें बस घर ही चल पाता है। यहाँ कुछ फ़ायदा नहीं है, आमदनी भी नहीं है, बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसा भी नहीं होता है," प्रशांत ने बताया। "अब मैं कोरोना ख़त्म होने के बाद जाऊँगा।"

जंगलों पर निर्भर लोगों की समस्याएं

साल 2001 की जनगणना के अनुसार बंगाल की लगभग 6% आबादी आदिवासी है। कई आदिवासी समूह पूरी तरह से वन उपज पर निर्भर हैं, सिर्फ़ आदिवासी ही नहीं कई समूह जो पीढ़ियों से जीवन यापन के लिए वन पर निर्भर हैं, आज भी यही काम करते हैं पर इन लोगों के जीवन यापन के साधन अब कम होते जा रहे हैं।

सुंदरबन जैसे इलाकों में ज्यादातर लोग जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर हैं और वन उपज जैसे लकड़ी और शहद बेचना इनका मुख्य काम है। ये काम न ही सिर्फ़ मुश्किल है बल्कि जोखिम भरा भी है, कई लोग जो जंगलों में जाते हैं वो बाघ का शिकार हो जाते हैं, ऐसे मामले पिछले कुछ सालों में और भी बढ़ गए। इंडियास्पेंड ने मार्च 2021 की अपनी खबर में इनके संघर्ष के बारे में बताया।

खेरिया-सबर समुदाय के आदिवासी श्रवण और सर्वती जो पहले रेशम उत्पादन का काम किया करते थे। फोटो: साधिका तिवारी

पुरुलिया ज़िले के जंगलमहल इलाक़े में आने वाले गाँव जनारा के निवासी पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर रहे हैं, यहाँ लोग रेशम के कीड़ों को पालकर रेशम का उत्पादन करते थे, पर अब यहाँ हालात बदल गए हैं। पीढ़ियों से रेशम का उत्पादन कर रहे लोग अब ये काम नहीं कर पा रहे हैं, इनकी आमदनी खत्म हो चुकी है और ये अन्य व्यवसाय ढूँढ रहे हैं।

"रेशम का काम अब पिछले दो-तीन साल से होना बंद हो गया है, आजकल पेड़ों में कीड़ा नहीं होता है," 65 वर्ष की सर्वती सबर ने बताया, इनकी उम्र के लोग जो गांव से बाहर नहीं जा सकते उन्होंने यहीं दूसरे काम ढूँढ लिए हैं, "हम साल (वृक्ष) के पत्तों को सिलकर इनकी प्लेट बनाकर बेचते हैं।"

"यहाँ अब काम नहीं मिलता है, जिसको जहाँ काम मिलता है वो वहाँ चला जाता है," श्रवण सबर, 60, ने बताया। क्या पिछले कुछ सालों में ज़्यादा लोग बाहर जाने लगे हैं के जवाब में इन्होंने कहा, "अब यहाँ रहने में क्या मिलेगा, कोई वर्धमान चला जाता है, काफ़ी सारे लोग गुजरात भी जाते हैं।"

पुरुलिया में खेरिया-सबर आदिवासी जो एक विमुक्त जनजाति या डीनोटिफ़ायड ट्राइब है पूरी तरह से जंगलो पर निर्भर हैं। पर इनकी समस्या का प्रमुख कारण है-- सरकार और वन विभाग द्वारा इन्हें जंगलों से बेदख़ल करने की कोशिश।

देश भर में कुछ आदिवासी समुदायों को अंग्रेजों ने 1871 के एक क़ानून के तहत अपराधी घोषित किया था, इन्हें इस सूची से 1952 में हटाया गया इसी लिए इन्हें डीनोटिफ़ायड कहा जाता है। देश भर में ये आदिवासी देश के सबसे पिछड़े समुदायों में से हैं। 2008 की रेनेके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 198 ऐसे समुदाय हैं और ये आज भी ग़रीबी में जी रहे हैं और इनमें से 89% के पास किसी भी भूमि पर मालिकाना हक़ नहीं है।

खेरिया-सबर समुदाय बहुल बेंगथूपी गाँव में 28 सबर परिवार रहते हैं जिनकी लगभग 80 बीघा ज़मीन हैं जिसपर ये और इनके पूर्वज सदियों से रह रहे हैं।

इसी तरह के समुदाय सदियों से जंगलों में रहते आ रहे हैं, इन्हें वन अधिकारी घुसपैठिया कहते आए हैं और इसी वजह से इन्हें समय समय पर जंगलों से खदेड़ने की मुहिम चलाते रहे हैं। साल 2006 में आए वन अधिकार क़ानून ने वन विभाग की इस 'ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी' को सुधारने का प्रयास किया और कहा कि इस तरह के समुदाय जो जंगल में सदियों से रहते आए हैं वो जंगल की भूमि पर पट्टे हासिल करने योग्य हैं। इसके बावजूद वन विभाग देश के जंगलों में तमाम तरकीबों से वन अधिकार क़ानून लागू नहीं होने देता है।

पुरुलिया का खेरिया सबर समुदाय भी इसी समस्या से जूझ रहा है, ये जिस भूमि पर खेती करते हैं और जिन जंगलों पर निर्भर हैं वहाँ से इन्हें समय समय पर वन विभाग निकालने की धमकी देता है। समुदाय ने वन अधिकार क़ानून के तहत सामुदायिक और व्यक्तिगत भूमि पट्टे हासिल करने की पिछले कुछ सालों में कई कोशिशें की, पर ये पट्टे अभी तक इन्हें नहीं दिए गए हैं।

इंडियास्पेंड ने वन अधिकार क़ानून के उल्लंघन और आदिवासियों को भूमि पट्टे नहीं मिलने पर देश भर से कई खबरें रिपोर्ट की हैं।

पुरुलिया का खेरिया-सबर आदिवासी गाँव बेंगथूपी जहाँ लोग सरकार के साथ पिछले कुछ समय से वन अधिकारों के लिए जूझ रहे हैं। फोटो: साधिका तिवारी

"हमारी ज़मीन पर वन विभाग ज़बरदस्ती पेड़ लगाने की बात करता है, हमें खेती करने नहीं देते। लकड़ी लेने जंगल में जाते हैं तो फ़ॉरेस्ट गार्ड मना करने लगते हैं," गोपाल सबर, 36, ने बताया। "हमारे जंगल भी अगर सरकार ले लेगी तो हम क्या करेंगे," गोपाल कहते हैं।

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