प्रयागराज/वाराणसी: देश की इकलौती कछुआ सेंचुरी कहां है? जब आप गूगल पर इसका जवाब खोजेंगे तो पाएंगे कि उत्‍तर प्रदेश के वाराणसी में गंगा नदी के सात किलोमीटर के इलाके में कछुआ सेंचुरी स्‍थ‍ित है। हालांकि यह जानकारी गलत है। कछुआ सेंचुरी मार्च 2020 तक वाराणसी में स्‍थ‍ित थी, लेकिन अब इसे ड‍िनोट‍िफाई कर दिया गया है। इसका मतलब है कि गंगा एक्‍शन प्‍लान के तहत 1989 में चिन्‍हित (नोटिफाई) की गई सेंचुरी का अब वाराणसी में कोई वजूद नहीं।

कछुआ सेंचुरी को वाराणसी से ड‍िनोट‍िफाई करने के बाद इसे गंगा नदी के प्रयागराज, मिर्जापुर और भदोही के 30 किलोमीटर के दायरे में नोट‍िफाई किया गया है। इंड‍ियास्‍पेंड की टीम अपनी 'गंगा ट्रेल' सीरीज के तहत जब गंगा नदी के इस दायरे में पहुंची तो कछुआ सेंचुरी के बारे में जानने की कोश‍िश की।

हैरानी की बात रही कि मार्च 2020 से करीब एक साल से ज्‍यादा का वक्‍त बीतने के बाद भी गंगा नदी के किनारों पर बसे गांव के लोगों को सेंचुरी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वहीं, वन विभाग के अध‍िकारियों के मुताबिक, अभी सेंचुरी नोट‍िफाई हुई है। इसका एक मैनेजमेंट प्‍लान बनाया गया है जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना, देख रेख की व्‍यवस्‍था करना, अलग-अलग प्रजातियों के कछुओं को छोड़ने जैसी बातें शामिल हैं।

मैनेजमेंट प्‍लान के मुताबिक, प्रयागराज जिले के कोठरी गांव से भदोही जिले के बारीपुर उपरवार गांव तक कछुआ सेंचुरी है। यह गंगा नदी का 30 किलोमीटर का दायरा है। इंड‍ियास्‍पेंड की टीम जब प्रयागराज के कोठरी गांव पहुंची तो यहां कछुआ सेंचुरी के नाम पर कुछ नहीं मिला

कोठरी गांव का गंगा घाट। यहीं से कछुआ सेंचुरी की शुरुआत होती है। नदी के उस पार बालू का मैदान है जो भदोही में पड़ता है। फोटो: रणविजय सिंह

कोठरी गांव के घाट पर एक मंदिर बना हुआ है। मंदिर के पास ही पुजारी का घर है। यहां हमारी मुलाकात 11 साल के देवकिनंदन शुक्‍ला से हुई। देवकिनंदन ने बताया, "कुछ महीने पहले घाट पर कछुआ सेंचुरी का पोस्‍टर लगाया गया था, लेकिन अब वह भी नहीं बचा है।"

घाट पर ही कोठरी गांव के अन्‍य लोग भी मिले, उन्‍होंने बताया कि इस इलाके में बालू खनन का काम भी होता है। बरसात में नदी का पानी बढ़ गया है ऐसे में खनन बंद है। लोगों के मुताबिक, घाट की दूसरी तरफ भदोही जिला लगता है, उस क्षेत्र में बरसात से पहले तक बड़ी-बड़ी मशीनों से खनन चल रहा था।

कछुआ सेंचुरी के बीच खनन होने की बात चौकाने वाली थी। इस क्षेत्र में खनन होने का मतलब है कि इसका सीधा नुकसान कछुओं को होगा। कछुओं की प्रजनन प्रक्रिया में बालू वाले घाट बहुत ही अहम हिस्सा हैं। कछुए नदी के किनारों पर रेत में अंडे देते हैं, अगर यहां खनन होता है तो यह चिंता की बात है। हालांकि कछुआ सेंचुरी के क्षेत्र में बालू खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध होता है।

कछुआ सेंचुरी के काम को देखने वाले प्रयागराज के प्रभारी वनअध‍िकारी रणवीर मिश्रा कहते हैं, "प्रयागराज में कोई खनन नहीं है। भदोही जनपद में खनन होता था, लेकिन सेंचुरी नोट‍िफाई होने के बाद से अब खनन के पट्टे नहीं होंगे। अगर कहीं अवैध खनन होगा तो उसे रोकने के लिए स्‍टाफ काम करेगा।"

प्रयागराज के प्रभारी वनअध‍िकारी रणवीर मिश्रा। फोटो: रणविजय सिंह

मिश्रा यह भी बताते हैं कि गंगा के इस क्षेत्र में पहले से कछुए पाए जाते हैं। इस साल मार्च में दो प्रजातियों के कछुओं को यहां छोड़ने का प्‍लान था, लेकिन तभी कोरोना की दूसरी लहर आ गई और इस वजह से कछुए नहीं छोड़े जा सके। कछुआ सेंचुरी में लखनऊ के कुकरैल में बने घड़‍ियाल पुनर्वास केंद्र से दो प्रजातियों के कछुए लाए जाएंगे, जिनके नाम हैं - जियोस्‍लिम्‍स हैमिलटोनी (Geoclemys hamiltonii) और पंगशुरा टेंटोरिया (Pangshura tentoria).

लखनऊ के कुकरैल वन क्षेत्र में टर्टल सर्वाइवल अलायंस का एक लैब चलता है। कछुआ सेंचुरी में यहीं से कछुए भेजे जाएंगे। टर्टल सर्वाइवल अलायंस के प्र‍िंस‍िपल साइंट‍िस्‍ट डॉ. शैलेष सिंह कहते हैं, "सेंचुरी में कई तरह के कछुए छोड़ने की योजना है, जैसे - जियोस्‍लिम्‍स हैमिलटोनी, पंगशुरा टेंटोरिया, इंड‍ियन सॉफ्टशेल टर्टल और नैरो हेडेड टर्टल। इस नए स्‍ट्रेच में कछुआ पालन की संभावनाएं अच्‍छी हैं।"

हालाँकि उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवासी भारतीय विभाग की वेबसाइट पर ये कछुआ सेंचुरी अभी भी वाराणसी में ही स्थित है।

वाराणसी से क्‍यों हटी कछुआ सेंचुरी?

भारत में कछुओं की 28 प्रजातियां पाई जाती हैं, लेकिन चिंता का विषय है कि इसमें से 40% कछुओं को लुप्‍तप्राय की श्रेणी में रखा गया है। इस स्‍थि‍ति में कछुओं का संरक्षण और भी जरूरी हो जाता है। वाराणसी से कछुआ सेंचुरी को हटाने के पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस क्षेत्र में कछुए बचे नहीं थे।

वाइल्‍ड लाइफ इस्‍ट‍िट्यूट ऑफ इंडिया (WII) की एक रिपोर्ट 2018 में आई। इस रिपोर्ट का नाम है - 'Assessment of the Wildlife Values of the Ganga River from Bijnor to Ballia including Turtle Wildlife Sanctuary (TWS)। रिपोर्ट में बताया गया कि वाराणसी के कछुआ सेंचुरी में पाए जाने वाले कछुओं की 13 प्रजातियों में से केवल पांच प्रजातियां मिली हैं। इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर कछुआ सेंचुरी को यहां से ड‍िनोट‍िफाई भी किया गया।

इसके अलावा यह भी तर्क दिए जाते हैं कि कछुआ सेंचुरी की वजह से घाट पर बालू बढ़ रही थी और नदी के बहाव पर असर हो रहा था। हालांकि करंट साइंस में छपी एक रिपोर्ट में 1965 से 2018 तक के सेटेलाइट इमेज के आधार पर यह कहा गया है कि कछुआ सेंचुरी के क्षेत्र में पिछले 50 साल में कोई खास बदलाव नहीं देखा गया।

वाइल्‍ड लाइफ इस्‍ट‍िट्यूट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में इस बात को माना गया है की वर्ष 1974 से 2016 के बीच में कछुआ सैंक्चुअरी के क्षेत्र में बालू में कोई बड़ा बदलाव नहीं पाया गया।

वाराणसी में जहां कछुआ सेंचुरी थी उस जगह बनाई गई कैनाल। फोटो: रणविजय सिंह

बहरहाल इन तमाम बातों के साथ वाराणसी से कछुआ सेंचुरी को ड‍िनोट‍िफाई कर प्रयागराज और भदोही के बीच भेज दिया गया। हालांकि इस पूरी प्रकिया को नजदीक से देखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सौरभ सिंह के मुताबिक, "वाराणसी में कछुआ सेंचुरी को सिर्फ इसलिए ड‍िनोट‍िफाई किया गया क्‍योंकि केंद्र सरकार की वॉटरवेज योजना का रूट वाराणसी के कछुआ सेंचुरी से होकर गुजरता है। अगर सेंचुरी ड‍िनोट‍िफाई न होती तो वॉटरवेज को इजाजत न मिलती, इसलिए ड‍िनोट‍िफाई कर दिया गया।"

स‍िंह वाराणसी के रहने वाले हैं और यहां इनर वॉइस फाउंडेशन से जुड़े हैं। वाराणसी में कछुआ सेंचुरी का महत्‍व बताते हुए स‍िंह कहते हैं, "कछुए नदी को साफ करते हैं। वाराणसी में हरिश्‍चंद्र घाट और मण‍िकर्ण‍िका घाट हैं जहां अंतिम संस्‍कार होते हैं। कई बार शव दाह के दौरान शव का कोई हिस्‍सा नदी में बह जाता है जिसे मांसाहारी कछुए खा जाते हैं। इसके अलावा भी नदी की गंदगी कछुओं द्वारा साफ की जाती है। इसलिए यहां सेंचुरी का होना बहुत जरूरी था।"

वाराणसी में जहां कछुआ सेंचुरी थी वहां बड़ी-बड़ी मशीनें लगाकर काम चल रहा है। फोटो: रणविजय सिंह

फिलहाल वाराणसी में कछुआ सेंचुरी बीती बात हो गई है। जिस जगह सेंचुरी थी वहां वर्तमान में एक लंबी कैनाल खोदी गई है जिससे गंगा का पानी दो हिस्‍सों में बंट जाएगा। साथ ही घाट की दूसरी तरफ बड़ी-बड़ी मशीनों से तमाम काम चल रहे हैं। कछुआ सेंचुरी के यहां रहते इन कार्यों की इजाजत न मिलती, लेकिन अब कोई रुकावट नहीं है।

(यह रिपोर्ट 'गंगा ट्रेल' सीरीज का तीसरा भाग है। इस सीरीज का पहला और दूसरा भाग आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं।)

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