दिल्ली: आंगनवाड़ियाँ भारत में बच्चों और महिलाओं के विकास की इकाई रही हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से लगातार इसके लाभार्थियों की संख्या कम हो रही है। महिला और बाल विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के अनुसार पिछले 6 सालों में आंगनवाड़ियों के लाभार्थियों की संख्या में 2 करोड़ से अधिक की गिरावट आई है। गौरतलब यह भी है कि इस दौरान देश में आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या में प्रतिवर्ष 6,538 के औसत से 39,230 आंगनवाड़ी केंद्रों की बढ़ोतरी हुई है।

साल 2014-15 में 13,42,146 आंगनवाड़ियों में लगभग 10.45 करोड़ महिलायें और बच्चे जाते थे। मार्च 2020 में आंगनवाड़ियों की संख्या बढ़कर 13,81,376 हो गयी लेकिन इनके लाभार्थियों की संख्या केवल 8.55 करोड़ रह गई। साथ ही अगर बात की जाए केवल बच्चों की तो 2014-15 में 8.49 करोड़ बच्चों को आंगनवाड़ियों से पोषणयुक्त खाना और शिक्षा मिलती थी परंतु 2020 में इन बच्चों की संख्या सिर्फ 6.86 करोड़ ही रह गई।


आंगनवाड़ी लाभार्थियों में लगातार आ रही कमी के पीछे कई कारण, जैसे आंगनवाड़ी केंद्रों पर जगह की कमी, जातीय भेदभाव, पीने के पानी व शौचालय की सुविधा ना होना, और बच्चों को मिलने वाले खाने के सामान की कालाबाजारी होना, हैं।

सुविधाओं की कमी बड़ा कारण

घटते हुए लाभार्थियों के पीछे आंगनवाड़ी केंद्रों में सुविधाओं की कमी भी एक बड़ा कारण। देश के कई आंगनवाड़ी केंद्र ऐसे हैं जो कि एक छोटे से कमरे में 20 से भी ज़्यादा बच्चों को बैठने पर मजबूर होते हैं और इन केंद्रों पर बिजली और पानी की सुविधाएँ भी मौजूद नहीं हैं।

इंडियास्पेंड की टीम ने इस वर्ष फरवरी में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के भिटौली कलां गांव के आंगनवाड़ी केंद्र का दौरा किया था और पाया था कि यह केंद्र प्राथमिक विद्यालय के एक छोटे से कमरे से चलाया जाता है। यही नहीं इस ही कमरे को एक और आंगनवाड़ी केंद्र के लिए चिन्हित किया गया है, यानी कि इस छोटे से कमरे में दो आंगनवाड़ी केंद्र चलाये जाते हैं।

"ये किचन है, अब आप देख लीजिये कितनी जगह है। अब इसमें हम कहाँ बच्चों को बैठाएंगे, कहाँ उनको खाना खिलाएंगे और कहाँ हम बैठेंगे? यहां पर ना तो कोई पंखा है, ना यहां बत्ती है, कुछ भी नहीं है यहां, अगर दोनों सेंटर के 20-20 बच्चे भी आते हैं तो गर्मी के दिनों में हम कैसे ही उन्हें बैठाएंगे," भिटौली कलां के आंगनवाड़ी केंद्र की सहायिका भानुमति ने बताया।

इस ही तरह कई आंगनवाड़ी केंद्र मूलभूत सुविधाओं के लिए अभी भी तरस रहे हैं।

केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय ने अपने जल जीवन मिशन के तहत अक्टूबर 2020 में यह दावा किया था कि आने वाले 100 दिनों में वह स्कूल और आंगनवाड़ियों तक नल से पानी पहुंचाएगी। लेकिन इस योजना की समयावधि दो बार बढ़ाने के बाद भी अभी 40% आंगनवाड़ी केंद्र ऐसे हैं जहां पर नल से जलप्रदाय की सुविधा नहीं हैं। अभी भी झारखंड और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां 10% से भी कम आंगनवाड़ी केंद्रों पर यह सुविधा उपलब्ध है।

कई आंगनवाड़ी केंद्र ऐसे हैं जिनके पास अपनी कोई ईमारत नहीं है या फिर ये इमारतें पुरानी या जर्जर हो चुकी हैं। उड़ीसा के कटक जिले की 2,000 से ज्यादा आंगनवाड़ियाँ हैं जिनके पास अपनी जगह नहीं है। कई केंद्रों की दीवारें और छतें गिरने की ख़बरें भी आती रहती हैं।

बच्चों और गर्भवती महिलाओं से लिए ज़रूरी चीजें जैसे कॉपी, किताब, खेलने के सामान, वजन करने की मशीन, रंग, खाना, शौचालय, खाने के बर्तन न होना लाभार्थियों के आंगनवाड़ी केंद्रों से दूर रहने के कुछ अहम कारण हैं। इसके अलावा आंगनवाड़ियों में खाने की कालाबाजारी, जातीय भेदभाव भी अन्य अहम मुद्दे हैं।

कुपोषण, भुखमरी से लड़ाई में बाधा

भारत में आंगनवाड़ी लाभार्थियों की संख्या में, इन आंकड़ों के अनुसार, प्रतिवर्ष लगभग 27 लाख से भी ज़्यादा की कमी आ रही है जो कि देश के कुपोषण और भुखमरी को समाप्त करने के लक्ष्यों में बहुत बड़ी बाधा बन सकती है।

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भारत में 13,81,376 आंगनवाड़ियाँ हैं जो बच्चों और महिलाओं के विकास के लिए जिम्मेदार हैं। भारत में 9.27 लाख कुपोषित बच्चे हैं जिन पर 2020-2021 के वित्त बजट का सिर्फ 1.74% भाग ही आवंटित हुआ था। साथ ही आंगनवाड़ियों के बजट में बच्चों पर खर्च होने वाले बजट का हिस्सा भी लगातार कम हो रहा है जिसकी वजह से कुपोषण और अनेमिया की बीमारी के मामलों में इज़ाफ़ा हो रहा है। यह बीमारिया पौष्टिक आहार न मिलने के अभाव से होती हैं और इन लाभार्थियों को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रभावित करता है। कुपोषण के करण बच्चों के खेलकूद और शिक्षा पर भी गहरा असर होता है।

भारत में इस समय कुपोषित बच्चों की संख्या 9.27 लाख है जो 6 माह से लेकर 6 वर्ष तक की आयु में आते हैं। यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है और संयुक्त राष्ट्र का कहना है कोविड़19 की महामारी के चलते स्थिति और भी गंभीर हो सकती है। यह आँकड़ें न केवल चिंताजनक हैं बल्कि भयावह भी हैं क्योंकि इनकी वजह से बच्चों की शिक्षा, प्रजनन दर और महिलाओं के स्वास्थ्य और पूरे परिवार के विकास पर असर पड़ता है। सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे उत्तर प्रदेश में हैं जिनकी संख्या लगभग 4 लाख है और उसके बाद बिहार में 2.79 लाख बच्चों में पोषण की कमी पाई गई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने मार्च 2018 में पोषण अभियान की शुरुआत की जिसका उद्देश्य था 10 करोड़ से अधिक महिलाओं और बच्चों के पोषण संबंधी संकेतों में सुधार लाना और कुपोषण के स्तर को 25% तक लाना जो अभी उससे ज्यादा है। व्यापक पोषण राष्ट्रीय सर्वेक्षण 2016-18 की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं से आधी आबादी अनिमिया से पीड़ित है और हर तीन बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।

कुपोषित बच्चों पर राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े गंभीर तस्वीर पेश करते हैं। 2016-18 के व्यापक पोषण राष्ट्रीय सर्वेक्षण (सीएनएनएस) के अनुसार, 0-4 वर्ष की आयु के 35% भारतीय बच्चे अविकसित (उम्र के लिए कम ऊंचाई) और 33% चार साल से काम उम्र के बच्चे कम वजन के थे। इस राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पाया गया कि उत्तर प्रदेश में 4 वर्ष से कम आयु के 38.8% बच्चे अविकसित थे।

(इंफोगरफिक्स - Malnourishment & States)

2020 में आई ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रैंकिंग के मुताबिक भारत 107 देशों की सूची में 94 स्थान पर है पर जहां बच्चे कुपोषित हैं और लोगों को खाना नहीं मिल पा रहा है। महिलाओं और बच्चों में कुपोषण और उससे जुड़ी बीमारियाँ भारत की बीमारियों का 15% आंकड़ा बनाती है।

इस लिहाज से भारत संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास के 17 लक्ष्यों में से एक -- भूखमरी का अंत -- को प्राप्त करने के अपने 2030 के लक्ष्य से भी बहुत पिछड़ जायेगा। हालाँकि सरकार ने 2017 में बच्चों और महिलाओं के पोषण पर किए जाने वाले हर दिन के खर्च को भी बढ़ाया था और इसे कुपोषित बच्चों के लिए रुपये 12, 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए रुपये 8 और गर्भवती महिलाओं के लिए इसे रुपये 9.50 किया था।

लेकिन ऐसी योजनाओं से अगर लाभार्थी ही दूर रह जाएँ तो भुखमरी और कुपोषण को ख़त्म करने के लक्ष्य भी बहुत ही दूर रह जायेंगे।

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