बिहार के बच्चों में बढ़ा कुपोषण, महिलाओं में बढ़ा अनीमिया
नई दिल्ली, पटना: बिहार में महिला और बाल स्वास्थ्य के आंकड़े और भी ख़राब हो गए हैं, ऐसा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 (एनएफ़एचएस-5) के हालिया आंकड़ों में सामने आया है। सबसे ख़राब आंकड़े हैं एनीमिया के हैं जो सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद सुधरने की बजाय और ख़राब हो गए हैं।
कुपोषण के मानकों में वेस्टिंग, सीवियर वेस्टिंग और मोटापे के आंकड़े पिछले पांच साल में बढ़ गए हैं। साथ ही बच्चों, महिलाओं, गर्भवती महिलाओं और किशोरियों में अनीमिया के आंकड़े और ख़राब हुए हैं। परिवार नियोजन के तरीक़ों में अभी भी पुरुषों की भागीदारी न के बराबर है और इसका भार ज़्यादातर महिलाओं पर ही है।
"बिहार में लोगों की आमदनी घटी है। दूसरी बात है कि पिछले तीन चार सालों में फ़ूड सिक्योरिटी की सुनिश्चितता भी घटी है। इससे ग़रीब तबके को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि कुपोषण और एनीमिया के मामले बढ़ेंगे," बिहार में काम कर रहे कोशिश चैरिटेबल ट्रस्ट से जुड़े रूपेश ने इंडियास्पेंड से कहा, "एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) और पीडीएस (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम) का प्रदर्शन भी पहले ठीक था। लेकिन, बाद में गड़बड़ी आ गई। पहले 80% आबादी तक आईसीडीएस और पीडीएस की सेवा पहुँचती थी, लेकिन अब घटकर 50% हो गई है," मीडिया रिपोर्ट्स का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा।
बिहार में स्टंटिंग और अंडरवेट बच्चों के आंकड़ों में सुधार आया है। साथ ही पुरुषों और किशोरों में अनीमिया के आंकड़े भी बेहतर हुए हैं। जच्चा स्वास्थ्य और सुरक्षित प्रसव के आंकड़ों में भी भी सुधार आया है। गर्भावस्था के दौरान जांच कराने वाली और आयरन गोली खाने वाली महिलाओं की संख्या में भी इज़ाफा हुआ है। साथ ही संस्थागत प्रसव की संख्या में भी पिछले पांच साल में इज़ाफा हुआ है।
स्टंटिंग यानी उम्र के अनुसार लम्बाई कम होने का आंकड़ा कुपोषण मापने के सबसे ज़रूरी आँकड़ों में से एक है, "किसी भी देश में असल विकास कैसा और कितना है सिर्फ़ वहां के लोगों में स्टंटिंग के आंकड़ों को देख कर बताया जा सकता है," लोक स्वास्थ पर काम करने वाले वरिष्ठ शोधकर्ता, अनुराग भार्गव ने बताया।
बच्चों में बढ़ता कुपोषण
बिहार में कुपोषण कम करने के लिए चलाए जा रहे कई स्वास्थ कार्यक्रमों के बावजूद यहाँ कुपोषण की स्थिति पांच साल में बदतर हो गयी है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों में वेस्टिंग यानी लम्बाई के अनुसार वज़न का आंकड़ा 2015-16 में 20.8% से बढ़कर 2019-20 में 23% हो गया है। सीवियर वेस्टिंग वाले बच्चों का आंकड़ा 7% से बढ़कर 9% हो गया है।
स्टंटिंग यानी उम्र के अनुसार लम्बाई के आंकड़ों में कुछ सुधार आया है, ये 2015-16 में 48.3% से घटकर 2019-20 में 43% हो गया है। स्टंटिंग का आंकड़ा ग्रामीण इलाक़ों में 44% और शहरी इलाक़ों में 37% है। इन आंकड़ों में सुधार आया है पर बिहार के 2019-20 के स्टंटिंग के आंकड़े, 2015-16 के राष्ट्रीय औसत, 38% से भी ख़राब हैं।
पांच साल तक की उम्र के, उम्र के हिसाब से कम वज़न के बच्चों के आंकड़े 2015-16 में 44% से घटकर 2019-20 में 41% पर आ गए हैं। लम्बाई के अनुसार ज़्यादा वज़न यानी ओवरवेट बच्चों का आंकड़ा 1.2% से बढ़कर 2.4% हो गया है। ओवरवेट बच्चों में बाक़ी मानकों की तरह ग्रामीण और शहरी आंकड़ों में अंतर मात्र 0.2% का है।
"कुपोषण को लेकर पोषण पुनर्वास केंद्र एक बड़ा हस्तक्षेप था। लेकिन इसका प्रदर्शन भी हाल के वर्षों में निराशाजनक रहा है," रूपेश ने कहा। "चार साल पहले तक पोषण पुनर्वास केंद्र बढ़िया प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन अभी ये सेवा भी ठप पड़ी हुई है," उन्होंने बताया।
देश भर में कुपोषण को कम करने के लिए कई ज़रूरी क़दम उठाए जा रहे हैं। पोषण अभियान, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का एक मुख्य अंग है। इसी के तहत पोषण माह, पोषण जन आंदोलन, पोषण पखवाड़ा जैसे कई कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं. देश भर के गांवों में हर महीने एक दिन को ग्रामीण स्वास्थ्य एवं पोषण दिवस के रूप में गांव के आंगनबाड़ी केंद्रों पर मनाया जाता है। इस दिन आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता गांव के बच्चों, महिलाओं और अन्य लोगों को बुलाती हैं और आंगनबाड़ी केंद्र पर गांव की एएनएम इन्हें स्वास्थ और पोषण से जुड़ी जानकारी देती हैं।
ग्रामीण स्वास्थ्य एवं पोषण दिवस का मक़सद कुछ मुख्य बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना और इनसे जुड़ी जानकारी लोगों तक पहुंचाना होता है। इन मुख्य बिंदुओं में जच्चा स्वास्थ और देखभाल, शिशु की देखभाल जैसे सही जांच, पोषण और टीकाकरण, परिवार नियोजन, निजी स्वच्छता, बीमारियों से बचना सबसे ज़रूरी पोषण-- खान-पान से जुड़ी सही आदतें, शिशुओं, बच्चों, किशोरियों और गर्भवती माओं की पोषण आपूर्ति आदि शामिल हैं।
जन स्वास्थ्य अभियान, राइट टू फूड, बिहार वॉलंटियर हेल्थ एसोसिएशन और ऑक्सफ़ेम ने संयुक्त रूप से लॉकडाउन के दौरान अप्रैल और मई में बिहार के 18 जिलों में रैपिड सर्वे किया, जिसमें चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। सर्वे की रिपोर्ट हालांकि अभी प्रकाशित नहीं हुई है, लेकिन जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़े डॉ शकील ने इंडियास्पेंड के साथ इसके कुछ आंकड़े साझा किये हैं।
रैपिड सर्वे में 18 पोषण पुनर्वास केंद्र शामिल थे। इन केंद्रों में साल 2019 में मार्च के महीने में गंभीर रूप से कुपोषित 500 बच्चे (6 महीने से 59 महीने तक के) भर्ती हुए थे। लेकिन, इस साल मई में सिर्फ 112 बच्चे भर्ती हुए। 36 ब्लॉक के लोगों के साथ बातचीत में 58% लोगों ने बताया कि विलेज हेल्थ न्यूट्रीशन एंड सैनिटेशन कमेटी (वीएचएसएनए) की बैठक आयोजित नहीं हुई, सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़।
सर्वे में शामिल 18 ज़िलों के 144 आंगनबाड़ी केंद्रों के वर्करों से बात करने पर पता चला कि 43% आंगनबाड़ी केंद्र बंद थे। वहीं, एक तिहाई वर्करों ने कहा कि वे बच्चों को राशन नहीं दे पा रहे थे, सर्वे रिपोर्ट का हवाला देते हुए डॉ शकील ने कहा ।
जिन इलाक़ों में ये कार्यक्रम किए जा रहे थे, उन इलाक़ों में भी लॉकडाउन के दौरान इन्हें बंद कर दिया गया। "लॉकडाउन के दौरान पोषण को लेकर जागरूकता फैलाने में दिक्कतें आई थीं। जिस आंगनबाड़ी केंद्र में सामान्य दिनों में 20 महिलाओं को बुलाकर जागरूक किया जाता था, लॉकडाउन में वहां 5 महिलाओं को ही बुलाया जा सका था। कई बार महिलाएं खुद भी कोरोनावायरस के डर से आने से कतराती थीं," रोहतास के भभुआ में काम करने वाली आशा वर्कर कुसुम देवी ने कहा।
इंडियास्पेंड ने लॉकडाउन के दौरान लगातार रिपोर्ट किया कि इसका कुपोषण पर क्या असर पड़ सकता है।
"जो आंकड़े सामने आए हैं, वे लॉकडाउन के पहले के हैं। लॉकडाउन में बहुत कुछ बंद रहा। इसलिए यकीन के साथ कह सकते हैं कि जो आंकड़े आए हैं, उनमें अभी और भी बदलाव हुआ होगा। लॉकडाउन में आंगनबाड़ी केंद्र बंद हो गए। टेक होम राशन बंद हो गया। स्कूलों में मिड-डे मिलता था, वो स्कूल बंद होने के कारण बंद हो गया। बच्चों की ग्रोथ की मॉनीटरिंग हुआ करती थी, वो भी बंद रही। एंटी नेटल जांचें बंद रहीं। ऐसे में जितने भी संकेतक हैं, उनमें गिरावट आना तय है," डॉ शकील ने कहा।
जन्म के बाद से तीन साल की उम्र तक स्तनपान भी बच्चों के पोषण के लिए ज़रूरी होता है, ख़ासकर जन्म के बाद का पहला पीला-गाढ़ा दूध या कलॉस्ट्रम, ये आंकड़ा भी बिहार में घट गया है। तीन साल से कम उम्र तक बच्चे जिन्हें पैदा होने के एक घंटे के अंदर स्तनपान कराया गया इनका आंकड़ा 2015-16 में 35% से घटकर 31% रह गया है। हालांकि 6 महीने तक सिर्फ़ स्तनपान कराए जाने वाले बच्चों का आंकड़ा 53% से बढ़कर 59% हो गया है। 12 से 23 महीने की उम्र तक के बच्चों के पूर्ण टीकाकरण का आंकड़ा 77% से 82% हो गया है।
एनीमिया के आंकड़ों में बढ़ोत्तरी
दरभंगा के जाले की रहने वाली रागिनी देवी को पिछले साल 31 दिसम्बर को डिलीवरी के लिए जाले रेफ़रल अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
उसे गंभीर एनीमिया था। इसकी जानकारी तुरंत दरभंगा मेडिकल कॉलेज व अस्पताल (डीएमसीएच) को दी गई और उसे बेहतर इलाज के लिए डीएमसीएच भेजा गया। वहां उसे खून चढ़ाया गया और आख़िर उसका सुरक्षित प्रसव हुआ। रागिनी का मामला बिहार में इकलौता नहीं है।
सिर्फ़ दरभंगा में ही वंडर ऐप पर जून 2019 से फ़रवरी 2020 तक पंजीकृत हुई 43,450 गर्भवती महिलाओं में से 777 महिलाएं गंभीर एनीमिया, 9,509 मध्य स्तर के एनीमिया और 6,914 महिलाएं हल्के एनीमिया से ग्रस्त पाई गईं थीं।
एनीमिया भारत में होने वाली 20% मातृत्व मृत्यु का कारण है, साथ ही ये 50% मातृत्व मौतों में सहयोगी कारण भी होता है, यह बच्चों में जन्म के समय कम वजन का कारण बनता है। स्वस्थ के मुकाबले एनीमिया से पीड़ित बच्चे बड़े होकर 2.5 फीसदी कम कमाते हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना, 'एनीमिया मुक्त भारत' का लक्ष्य है देश से एनीमिया को धीरे-धीरे कम करते हुए पूरी तरह मिटा देना। बिहार इस लक्ष्य के विपरीत चलता दिखाई दे रहा है, यहां एनीमिया कम होने की बजाय पिछले पांच साल में तेज़ी से बढ़ा है।
बिहार में 6 महीने से 4 साल 9 महीने तक की उम्र के 63.5% बच्चे साल 2015-16 में अनीमिक थे, ये संख्या 2019-20 में बढ़ कर 69% हो गयी। 15 से 49 साल की महिलाओं में एनीमिया 60% से 63.5% हो गया है, जबकि इसी उम्र की गर्भवती महिलाओं में ये आंकड़ा 58% से 63% हुआ है।
एनीमिया कम करने में पुरुषों पर भी ध्यान देना बेहद ज़रूरी है, इंडियास्पेंड की नवंबर 2019 की खबर में ऐसा सामने आया था। बिहार में पुरुषों में एनीमिया 2015-16 में 32% से कुछ कम हो कर 2019-20 में 29.5% हो गया है।
15 से 19 साल की किशोरियों में एनीमिया 2015-16 में 61% से बढ़ कर 2019-20 में 66% हो गया है जबकि इसी उम्र के किशोरों में ये 38% से घट कर 35% हो गया है।
एनीमिया एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक व्यक्ति की लाल रक्त कोशिकाएं सामान्य से कम होती हैं या हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाती है। इससे खून के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों तक ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कम हो जाती है और कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। कई मामलों में मृत्यु तक हो जाती है। भारत में एनीमिया न सिर्फ़ एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है बल्कि महिलाओं और बच्चों में एनीमिया लगभग आधी सदी से एक बड़ी समस्या बनी हुई है, इंडियास्पेंड की नवंबर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार।
हीमोग्लोबिन की कमी उत्पादकता कम कर देती है और कई बीमारियों को जन्म देती है, इससे जिंदगी पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। वर्ष 2016 में, एनीमिया से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 22.64 बिलियन डॉलर (1.50 लाख करोड़ रुपए) के नुकसान का अनुमान लगाया गया था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंडों के अनुसार, यदि पुरुषों में हीमोग्लोबिन स्तर प्रति डेसिलिटर (डीएल) पर 13.0 ग्राम (जी) से कम है तो उन्हें एनीमिक माना जाता है। यदि महिलाओं में 12.0 जी / डीएल से स्तर कम है और वे गर्भवती नहीं हैं तो वे एनीमिक हैं। गर्भवती महिलाओं में, 11.0 ग्रा / डीएल से कम स्तर एनीमिया का संकेत देते हैं।
दुनिया भर में एनीमिया का सबसे आम कारण होता है पोषक तत्वों की कमी है। भारत एनीमिया के लगभग आधे मामलों का कारण है आयरन और विटामिन बी9 (फोलेट) और बी12 का अपर्याप्त सेवन।
केंद्रीय फंड का 60% हिस्सा ही खर्च कर सकी सरकार
बच्चों व महिलाओं में कुपोषण कम करने के लिए महिला और शिशु विकास मंत्रालय वर्ष 2017 के दिसंबर से पोषण अभियान चला रहा है। पहले ये नेशनल न्यूट्रीशन मिशन नाम से चल रहा था, जिसे बाद में पोषण अभियान नाम दिया गया।
अभियान के तहत तीन वर्षों में शून्य से 6 साल के बच्चों में बौनापन (स्टंटिंग) व कम वज़न के मामलों में 6% की कमी, 6 से 59 माह के बच्चों में एनीमिया में 9% की कमी, 15-59 साल की महिलाओं में एनीमिया के मामलों में 9% की कमी लाने और जन्म के वक्त नवजात का वज़न सामान्य से कम होने के मामलों को 6% कम करने का लक्ष्य रखा गया है।
अब तक केंद्र सरकार इस अभियान के अंतर्गत अलग-अलग राज्यों को कुल 428,640.71 लाख रुपए दे चुकी है। बिहार को पिछले तीन वर्षों में 32,065.11 लाख रुपए दिये गए, जिनमें से 31 दिसंबर, 2019 तक बिहार सरकार ने 18,373.30 लाख रुपए खर्च किये, लोकसभा में 20 मार्च 2020 को पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय महिला व शिशु विकास मंत्रालय की जानकारी के अनुसार।
जच्चा स्वास्थ और संस्थागत प्रसव में सुधार, परिवार नियोजन का भार महिलाओं पर जारी
परिवार नियोजन के तरीक़ों का इस्तेमाल 2015-16 में 24% से बढ़कर 2019-20 में 56% हो गया है। हालांकि परिवार नियोजन के तरीक़ों में अभी भी पुरुषों की भागीदारी न के बराबर है और पुरुष नसबंदी 0% से 0.1% हो गयी है, कंडोम का इस्तेमाल 1% से 4% हो गया है। परिवार नियोजन का भार अभी भी महिलाओं पर ज़्यादा है। नसबंदी कराने वाली महिलाएं 2015-16 में 21% से बढ़कर 2019-20 में 35% हो गई। प्रति महिला बच्चों की संख्या यानी फ़र्टिलिटी रेट में पांच साल में सिर्फ़ 0.4% की कमी आई है, जबकि 15 से 19 साल की किशोरियों के फ़र्टिलिटी रेट में कोई बदलाव नहीं आया, ये अभी भी 77% है।
जच्चा स्वास्थ्य और सुरक्षित प्रसव के आंकड़ों में सुधार आया है। गर्भावस्था की पहली तिमाही में जांच कराने वाली महिलाओं की संख्या 35% से 53% हो गई है, पूरी चार जांचें कराने वाली महिलाओं की संख्या 14% से 25% हो गई है। गर्भवस्था के दौरान आयरन की गोली खाने वाली महिलाओं की संख्या में भी 8% का इज़ाफ़ा हुआ है।
साथ ही संस्थागत प्रसव की संख्या में भी इज़ाफ़ा हुआ है ये आंकड़ा 64% से बढ़कर 76% हो गया है।
संस्थागत प्रसव में इज़ाफा के पीछे अधिकारियों व आशा वर्करों ने जागरूकता अभियान और प्रोत्साहन राशि को वजह माना।
"गर्भधारण से लेकर डिलीवरी तक गर्भवती महिलाओं की चार बार जांच कराई जाती है। गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी का वक्त नज़दीक आता है, तो आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) और एएनएम (ऑक्जीलरी नर्स मिडवाइफ) को विशेष नजर रखने को कहा जाता है," मुज़फ़्फ़रपुर के एडिशनल चीफ़ मेडिकल ऑफिसर, हरेंद्र कुमार आलोक ने इंडियास्पेंड से कहा।
"आशा व एएनएम को निर्देश है कि गर्भवती महिलाओं को प्रसव पीड़ा उठे, तो तुरंत एम्बुलेंस से उन्हें पीएसची, सीएचसी या मेडिकल कॉलेज ले जाया जाए। इसके साथ ही सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में बच्चा जनने वाली महिलाओं को 1,400 रुपए प्रोत्साहन राशि मिलती है। वहीं, आशा वर्करों को 600 रुपए दिये जाते हैं, ताकि वे संस्थागत प्रसव पर ध्यान दें," हरेंद्र कुमार आलोक ने बताया।
कैमूर ज़िले के रामपुर पीएचसी के अंतर्गत काम कर रही आशा वर्कर सबाया ने कहा कि हाल के वर्षों में सरकारी एम्बुलेंस की व्यवस्था चुस्त की गई है, जिससे गर्भवती महिलाओं को सरकारी अस्पताल तक पहुंचाना आसान हो गया है। पहले ऐसी व्यवस्था नहीं थी, जिससे घरों में ही डिलीवरी हो जाती थी।
"नियमित टेस्ट होने से हमलोगों को पता चल जाता है कि किस गर्भवती महिला को डिलीवरी के वक्त दिक्कत हो सकती है, इसलिए हम लोग पहले से सचेत रहते हैं," उन्होंने कहा।