दमोह: एक दशक पहले तक भी मध्यप्रदेश के दमोह जिले में फुलर गांव के लोगों का उस जमीन पर कोई अधिकार नहीं था, जिस पर वे पीढ़ियों से रह रहे थे। वे लगातार इस डर में जीते थे कि सरकारी अधिकारी ना जाने कब उनकी फसलों को नष्ट करने या जमीन खाली करने का आदेश सुना दें। सूखी जमीन और खेती की सीमित संभावनाओं ने उनकी गरीबी को और बढ़ा दिया था।

फुलर गांव में रहने वाली चंद्रवती गौंड कहती है, "कभी कभार आने वाले अपने मेहमानों को खिलाने के लिए हमें पड़ोसियों से आटा उधार लेना पड़ता था।" वरना, 92 घरों और 975 लोगों वाले इस साधारण से गांव के लोग सिर्फ कोडो कुटकी (कच्चे चावल की एक किस्म) और जौं पर जीवित रहते थे। यहां पर गोंड जनजाति के लोग रहते हैं।

वर्ष 2006 के बाद यहां के हालात में बड़ा बदलाव आया, जब एकता परिषद नाम का एक जनआंदोलन इस गांव में पहुंचा। उन्होंने गांव वालों को बताया कि भूमि पर उनका अधिकार है। परिषद के संस्थापक सदस्य और गांधीवादी आदर्शों के पैरोकार पीवी राजगोपाल ने वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) को लागू करने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से इस आंदोलन को शुरू किया। 2006 में इस अधिनियम को पारित किया गया जिसका उद्देश्य "वन क्षेत्र की भूमि पर अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकार और कब्जे को मान्यता देना" है।

जनादेश यात्रा जिसने सब बदल दिया

एफआरए के पारित होने के एक साल बाद, राजगोपाल ने कानून के तहत मिले अधिकारों के बारे में ग्रामीणों को जागरूक बनाने के लिए जनादेश यात्रा शुरू की। ग्वालियर से दिल्ली तक की इस यात्रा में लगभग 25,000 लोगों ने भाग लिया था, ताकि अपनी बात कह सकें। इनमें फुलर और उसके पड़ोसी गांव जबेरा के 325 लोग भी शामिल थे। जबेरा गांव के लोग भी लंबे समय से डर के साये में जी रहे थे।

मानव जीवन विकास समिति के संयोजक और जबेरा गांव के निवासी घनश्याम प्रसाद ने बताया, "सरकारी अधिकारियों ने कई मौकों पर हमसे जमीन खाली करने को कहा था। हम लोग बेबस थे. फिर एकता परिषद ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। उन्होंने हमें बताया कि यह जमीन हमारी है।"

एकता परिषद के साथ मिलकर प्रसाद ने यह जानकारी आगे दूसरे ग्रामीणों तक पहुंचाई। जागरूकता सत्रों ने उनके आत्मविश्वास को बढ़ाया, जिसे केंद्र सरकार द्वारा एफआरए को तत्काल प्रभाव से लागू करने के वादे से और बल मिला।

एफआरए के तहत भूमि को फिर से हासिल करने की प्रक्रिया 2009 में शुरू हुई थी। 90 परिवारों ने इसके लिए जरूरी फॉर्म जमा कराए। इनमें से 45 दावे खारिज कर दिए गए। शुरू-शुरू में जमीन हासिल करने की प्रक्रिया में कई बाधाएं आईं. कहीं दावे खारिज किए गए तो कहीं इसके लिए जरूरी कागजी कार्यवाही को लेकर भ्रम की स्थिति थी। अधिकतर ग्रामीणों को पता ही नहीं था कि कहां से फार्म मिलेगा, कौन सा फार्म भरना है और कहाँ जमा करना है। वे नहीं जानते थे कि अपनी जमीन को हासिल करने के लिए उन्हें कौन-कौन सी औपचारिकताओं से गुजरना होगा।

गाँव में बनाया गया एक बड़ा तालाब। फोटो: शाहरोज़ अफरीदी

प्रसाद और उनकी टीम इन लोगों की मदद के लिए आगे आई। उन्होंने सुस्त रफ्तार से चलने वाली नौकरशाही से लगातार जूझते हुए 2017 तक (162 में से) 128 परिवारों को उनका हक दिलवाने में मदद की। इसका परिणाम यह रहा कि 221.118 हेक्टेयर भूमि पर ग्रामीणों का अधिकार हो गया। इससे एक दशक पहले की स्थिति से तुलना करें तो यह बड़ा बदलाव है. पंचायत सचिव गोपाल कुर्मी कहते हैं, "2007 से पहले केवल 30-40 परिवार के पास ही खेती की जमीन थी।" पंचायत सचिव जमीनी स्तर पर नियुक्त सरकारी कर्मचारी होता है जिसकी जिम्मेदारी पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के तहत चलने वाली सभी सरकारी योजना को लागू करना है।

बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना

अपनी जमीन को फिर से पा लेने की सफल लड़ाई ने ग्रामीणों का मनोबल बढ़ा दिया था। इस जमीन को अधिक कुशलता के साथ इस्तेमाल करने की जरूरत थी। स्थानीय जमीन मालिकों को पता था कि दमोह में पानी की अत्यधिक किल्लत को देखते हुए खेती के पारंपरिक तरीकों से ज्यादा कुछ करना संभव नहीं होगा। इसलिए इन परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए समाधान ढूंढना जरूरी था।

2009 की जनादेश यात्रा के दौरान फुलर गांव के लोग जल विशेषज्ञों के संपर्क में आए, जिन्होंने छोटी जल संरचना बनाने और बारिश का पानी जमा करने के फायदों के बारे में बताया। अपने गांव लौटने पर ग्रामीणों ने खेतों को समतल किया, छोटे-छोटे तालाब बनाए और बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए खेतों में मेड़ बनाईं।

विमला बहन फुलर गांव की एक गुमनाम संरक्षक रही हैं, जिन्होंने एफआरए लागू होने से पहले उनकी भूमि हड़पने के सरकारी प्रयास का लगातार विरोध किया था. उन्होंने इन जल संरचनाओं की रूप रेखा तैयार करने और उन्हें बनाने में महिलाओं के बीच अग्रणी भूमिका निभाई।

अमर सिंह गौंड़ ने श्रमदान के लिए गांव के लोगों को इकट्ठा करने और तालाब बनाने के लिए जगह की पहचान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने बताया, "प्रत्येक परिवार का एक सदस्य निचले इलाकों में तालाब बनाने के लिए श्रमदान करेगा।" इससे धीरे धीरे फुलर गांव का चेहरा बदल गया। 2011 तक ऐसे दर्जनों तालाब बनकर तैयार थे। किसानों ने महसूस किया कि उनकी उपज बढ़ गई है और भूजल का स्तर भी ऊंचा उठा है।

अमर सिंह गौंड बताते हैं कि पहले एक किसान की औसतन उपज 30-40 क्विंटल थी। आज यह प्रति किसान कम से कम 70 क्विंटल है। किसान सोन सिंह गौंड कहते हैं, "मौजूदा समय में हर किसान के पास घर में 8-10 क्विंटल अनाज का भंडार है।" उन्होंने सही मायने में अपनी जमीन का विकास होते देखा है। अब वह प्याज, बैंगन और टमाटर भी उगा रहे हैं। खरीफ फसलों में गेहूं, चना (छोला) और मसूर (दाल) शामिल हैं और रबी की फसलों में चावल, मक्का (मकई), ज्वार, बाजरा, मूंग (दाल), अरहर (पीला टूटा अरहर) और उड़द (काली दाल) हैं।

अमर सिंह गौंड जिन्होंने तालाब की ज़मीन ढूंढने और गाँव वालों को श्रमदान के लिए जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फोटो: शाहरोज़ अफरीदी

जलसंग्रहण के चलते साल भर खेती की जा सकती है। इससे बहुत से ग्रामीणों को अब काम की तलाश में दिल्ली, पंजाब, गुना और अशोकनगर जैसी जगहों पर जाने की जरूरत नहीं है।

पंचायत सचिव कुर्मी कहते हैं, "यह सूखा इलाका है। यहां खेती पूरी तरह से बारिश पर निर्भर थी." उन्होंने आगे बताया कि ग्रामीण सितंबर-अक्टूबर के महीनों में काम की तलाश में बड़े शहरों में चले जाते थे और जून में लौट वापस आते थे, जब बारिश की बारिश की संभावना होती थी। लेकिन अब वे यही रहते हैं और साल भर खेती बाड़ी करते हैं।

फुलर गांव में हो रही बढ़िया खेती बाड़ी के अलावा बहुत से लोग जंगल से चीजें चुनने और मवेशी रखने के पारंपरिक कामों को भी जारी रखे हुए हैं।

(यह लेख 101रिपोर्टर्स की ओर से सामुदायिक प्रयास से होने वाले सकारात्मक बदलाव की कड़ी का हिस्सा है। इस कड़ी में हम यह पता लगाएंगे कि कैसे समाज के लोग किस तरह से अपने स्थानीय संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपने लिए रोजगार के अवसर पैदा कर रहे हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव भी लेकर आ रहे हैं।)

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