मेरठ: पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के राजनीतिक मुख्यालय मेरठ से सबसे नज़दीक गंगाघाट है, मकदूमपुर। यहां गंगा नदी के खादर में पालेज किसान श्रीपाल घाट पर स्प्रेयर को फसल पर छिड़काव के लिए तैयार कर रहे हैं। वह स्प्रेयर में कोराजन (कीटनाशक दवा) डालते हैं। फिर गंगा नदी के पानी से स्प्रेयर को भर देते हैं। स्प्रेयर को पीठ पर लादकर फसल पर छिड़काव करने लगते हैं। श्रीपाल बताते हैं कि इस फसल के छिड़काव से फसल बड़वार (पैदावार) करती है। यह दवा फसल को बहुत से रोगों से बचाती है। बाजार में कोराजन की 150 मिलीलीटर की बोतल की कीमत करीब रूपये 4,000 है।

पालेज उस खेती को कहते है जिसके लिए गंगा किनारे कई किलोमीटर तक फैली रेतीली जमीन का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें सभी तरह की मौसमी सब्जियां, खरबूज, तरबूज, खीरा, ककड़ी और रकवा बड़ा होने पर मक्का और गन्ने तक की खेती की जाती है।

गंगा किनारे पालेज (जायद फसल) की खेती में ऐसे बहुत सारे पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। इसके अलावा पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनिक खादें भी इन फसलों में इस्तेमाल की जाती हैं। इन हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल से किसानों की फसलें तो अच्छी हो जाती हैं लेकिन ये ही रसायन गंगा के पानी में मिलकर नदी में रहने वाले जलीय जीवों और नदी के पानी पर बहुत ही बुरा असर डाल रहे हैं।

पश्चिमी हिमालय के ग्लेशियरों से निकली गंगा नदी उत्तराखंड के पहाड़ों के बाद जब उत्तरप्रदेश के मैदान में आती है तो बिजनौर उसका पहला पड़ाव है। ठीक यहीं से गंगा के संरक्षण और स्वच्छता के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों की ऐसी योजनाऐं शुरू होती है जिन पर हर साल सैकड़ो करोड़ रूपये बहाये जाते है। बिजनौर से गढ़मुक्तेश्वर तक गंगा नदी की धारा हस्तिनापुर वाइल्ड लाइफ सैंचुरी के बीच से होती हुई निकलती है। गढ़मुक्तेश्वर से नरौरा तक के बीच की गंगा अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की रामसर साइट है। करीब 225 किलोमीटर का गंगा का यह इलाका दुर्लभ जलीय जीवों के लिए प्रसिद्ध है।

मकदूमपुर के एक खेत में स्प्रेयर में कीटनाशक भरता एक किसान। फोटो: नरेंद्र

बिजनौर से गढ़मुक्तेश्वर तक हस्तिनापुर वाइल्ड लाइफ सैंचुरी का इलाका वन्य और जलीय जीवों का आशियाना है। यह इलाका वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत संरक्षित है। यहां कछुओं की दुर्लभ प्रजातियों के साथ विश्वप्रसिद्ध गंगेटिक डाल्फिन भी पायी जाती है। गंगेटिक डाल्फिन भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव है और यह गहरे मीठे पानी में रहती है। यहां दुर्लभ घड़ियालों का भी ठिकाना है। यह सभी जलीय जीव गंगा के प्राकृतिक सफाईकर्मी हैं। जाहिर है इनकी जिंदगी के लिए जरूरी है कि जंगल और पानी में इंसानी दखल कम हो। लेकिन गंगा के खादर में रसायनिक खादों से हो रही खेती और इस्तेमाल हो रही जहरीली कीटनाशक दवाऐं जलीय जीवों के घर के लिए बड़ा खतरा है।

केन्द्र सरकार की योजना के तहत जलीय जीवों के संरक्षण और पुनर्वास का कार्य करने वाली विश्वप्रसिद्ध संस्था के अधिकारी नाम छुपाये रखने की शर्त पर बताते है कि पालेज की फसल के नाम पर अवैध खेती और उसमें इस्तैमाल होने वाले जहर से जलीय जीवों के पालन-पोषण में कई दिक्कतें आती हैं। जलीय जीवों का शारीरिक विकास कम है साथ ही उनके छोटे बच्चों का अस्तित्व खतरे में है।

जानलेवा रसायन और किसानों की मजबूरी

यह सारी खेती 'गंगा' नदी के नाम से राजस्व अभिलेखों में दर्ज सरकारी जमीन पर कब्जा करके की जाती है। इस जमीन को न तो पट्टे पर दिया जा सकता है और ना ही इसका हस्तान्तरण संभव है।

गंगा नदी के दोनों किनारों से शुरू होकर एक से डेढ़ किलोमीटर का रकवा 'गंगा' के नाम से राजस्व अभिलेखों में अंकित है। इसके बाद ग्रामसभा की सरकारी जमीनें शुरू होती हैं। गंगा नदी वक्त के साथ अपनी धारा बदलती रहती है। यह बदलाव कभी हर साल तो कभी कई बरसों में होता है। इस दौरान कई बार गंगा की धारा गांवों के किनारों तक फैली 'गंगा' की जमीन तक चली जाती है। ऐसे में जहां पानी नहीं होता, वहां भूमाफिया और दबंग 'गंगा' की जमीन पर कब्जा करके खेती शुरू कर देते हैं।

मकदूमपुर गांव की धर्मवती पालेज किसानों में से एक है। गंगा किनारे माफिया के हाथों मिलने वाली जमीन की असलियत उन्हें नही मालूम। वह बताती हैं कि इलाके के जनप्रतिनिधि तहसील से ठेका उठाकर अलग-अलग इलाकों के पेटी ठेकेदारों में बांट देते हैं। पेटी ठेकेदार पालेज खेती करने वाले किसानों तक आते हैं और उन्हें जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े अस्थाई पट्टे पर साल भर के लिए दे देते हैं। इस जमीन के लिए पैसा भी वसूल किया जाता है। पूस के महीने में गंगा मेला के बाद पालेज लगाने का काम शुरू होता है और मई-जून में मानसून आने तक चलता है। कभी-कभी पानी पहले आ जाता है तो पालेज उजड़ जाती है।

बिजनौर में गंगा खादर के गांव मुजफ्फरपुर खादर के किसान विनीत चौहान बताते हैं कि पालेज की खेती में डाई (रसायनिक खाद) और नुमान समेत कई पेस्टीसाइट्स का इस्तैमाल करना पड़ता है। केवल फसल की पैदावार के लिए नही, खेत से घास हटाने के लिए भी 3 से 4 बार दवा का छिड़काव जरूरी है। जमीन रूपये 6 हजार बीघा है इसलिए पैदावार बढ़ाकर ही फसल की लागत और मुनाफा निकाला जा सकता है।

प्रसिद्ध तीर्थ अवन्तिका देवी मंदिर के पास के गांव तोरई आजमपुर के अनिल गंगा के दोनों किनारों पर पालेज की खेती करते हैं। परम्परागत पालेज किसान होने की वजह से उनकी ग्रामसभा को गंगा की जमीन पर उनके या अन्य किसानों के खेती करने से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन दूसरी ओर बदायूं जिले की सीमा लगती है। वहां भी उन्होने रूपये 4 हजार एकड़ की कीमत पर 4 एकड़ गंगा की जमीन इलाके के भूमाफिया से किराये पर ली है। अनिल बताते हैं कि यहां केवल जैविक खादों के इस्तेमाल से ही खेती करने की आजादी है लेकिन उससे फसल की पैदावार नहीं होती। इसलिए रसायनिक खादों के अलावा पैदावार बढ़ाने के लिए वह पेस्टीसाइट्स का भी इस्तेमाल करते हैं।

डॉलफिन पर बुरा प्रभाव

गढ़मुक्तेश्वर ब्रजघाट पश्चिमी उत्तरप्रदेश का प्रसिद्ध गंगाघाट है। दिल्ली से नजदीक होने की वजह से गंगा में आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह बड़ा तीर्थ है। यहां से गंगा की जलपरी कही जाने वाली गंगेटिक डाल्फिन का स्थाई निवास शुरू होता है। इस इलाके में गहरे मीठे पानी की बहुत सी छोड़ी-बड़ी झीलें हैं। गंगेटिक डाल्फिन ब्रजघाट से नरौरा डेम तक गंगा की अपर स्ट्रीम में बहुतायत में मिलती हैं। गंगा की 86 किलोमीटर लंबी इस धारा को रामसर साइट या रामसर वेटलैंड कहा जाता है। साल 2005 में प्राकृतिक धरोहर घोषित होने के बाद से यह रामसर साइट विश्व मानचित्र पर गिना जाता है।

गंगा नदी का अति महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बाबजूद इस साइट पर इंसानी दखल बहुत है। यहां पालेज की खेती, खनन और शिकार केवल कागजों पर प्रतिबंधित है। बीते 15 सालों में इस प्रोजेक्ट से जुड़े मंत्रालय और विभाग यहां खादर में होने वाली अवैध गतिविधियों को पूरी तरह नहीं रोक पाये हैं।

बीते साल हुई गिनती के मुताबिक रामसर साइट में अभी 41 गंगेटिक डाल्फिन हैं। 2013 में उत्तराखंड आपदा के वक्त बहुत सी डाल्फिन नरौरा डेम के नीचे डाउन स्ट्रीम में बह गयीं थीं। उनको ट्रांसलोकेट नहीं किया जा सका। तब गंगा में डाल्फिन की संख्या 55 से अधिक थी। सात सालों में इनके कुबने में उम्मीद के मुताबित बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।

गंगा नदी के खादर के कई इलाकों में हमारी टीम को कई तरह के पेस्टीसाइड्स की खाली बोतलें मिलीं। इनको इस्तेमाल के बाद खेत में ही फैंक दिया गया था। इनके नाम एडफॉस, कॉन, एलीमिनेटर और राउन्डअप हैं। नदी से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक खेत में बलवान सिंह यूरिया का छिड़काव करते मिले। उन्होने बताया कि गंगा के खादर में मिट्टी न के बराबर है। केवल रेत होती है, धरती के नीचे और ऊपर भी। इसलिए यहां बिना यूरिया और ऐसे उर्वरकों के पैदावार हो ही नहीं सकती। नमी ज्यादा होने की वजह से यहां कीड़े बहुत होते हैं, उनको बिना दवा (पेस्टीसाइड्स) के खत्म नहीं किया जा सकता साथ ही पैदावार बढ़ाने के लिए यूरिया का भी इस्तेमाल करना पड़ता है।

गंगा नदी के खादर के कई इलाकों में हमारी टीम को कई तरह के पेस्टीसाइड्स की खाली बोतलें मिलीं। फोटो: नरेंद्र

गंगेटिक डॉलफिन पर करीब दो दशकों से काम कर रहे आर के सिन्हा अपनी एक स्टडी में लिखते हैं कि गंगा में मिलने वाले वाली रासायनिक खाद और अन्य रसायनों से डॉलफिन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इन रसायनों का इस मछली के विकास और प्रजनन क्षमता पर भी असर होता है जिससे इसके संरक्षण के लिए किये जा रहे प्रयासों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

घड़ियाल, कछुओं के लिए बड़ी समस्या

गंगा नदी और उसके जीवन को संरक्षित करने के लिए राज्य और केन्द्र की सरकार ने 3 कार्यक्रम चलाये हुए हैं। विश्व वन्य निधि यानी डब्लूडब्लूएफ इस कार्यक्रम को केन्द्रीय वन मंत्रालय संचालित करता है। 2009 में हस्तिनापुर वाइल्ड लाइफ सैंचुरी में घड़ियाल के पुनर्विस्थापन की योजना शुरू की गई। हस्तिनापुर सेंचुरी से पहले घड़ियाल उत्तर प्रदेश की चंबल और घाघरा नदी में ही पाये जाते थे। गंगा नदी में इनका इतिहास करीब सौ साल पहले रहा है।

इस योजना के तहत घड़ियालों के बच्चों को लखनऊ से लाकर गंगा नदी में छोड़ा जाता है। डब्लूडब्लूएफ और वन विभाग घड़ियालों की पहचान बनाये रखने के लिए उनकी टैगिंग करता है। घड़ियाल 15 साल की उम्र में जाकर वयस्क होता है। डब्लूडब्लूएफ घड़ियालों को समय-समय पर ट्रेक करके उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेता है। 2009 से अभी तक गंगा नदी के इस हिस्से में 825 घड़ियाल छोड़े गये है। डब्लूडब्लूएफ के अनुसार उनके छोड़े गये घड़ियाल अपरस्ट्रीम में भीमगोड़ा बैराज हरिद्वार और डाउनस्ट्रीम में मिर्जापुर जिले तक मिले हैं।

घड़ियालों के खाने, रहने और प्रजनन में नदी के किनारों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। संजीव कुमार यादव, असग़र नवाब और अफीफुल्लाह खान की एक रिपोर्ट के अनुसार पालेज की खेती घड़ियालों के लिए बहुत बड़ी परेशानी है। यह खेती घड़ियालों की तापने की जगह और प्रजनन के विशेष स्थानों पर अतिक्रमण करती है और इन जंतुओं के व्यवहार में परिवर्तन करती है।

बिजनौर से नरौरा तक डब्लूडब्लूएफ कछुओं के संरक्षण का कार्यक्रम भी चला रहा है। गंगा में एक समय कछुओं की 12 प्रजातियां पायी जाती थीं। वर्तमान में 60% प्रजातियां अति संकटग्रस्त अवस्था में हैं। 2013 में कछुआ संरक्षण के लिए शुरू हुए प्रोजेक्ट के अन्तर्गत अब तक डब्लूडब्लूएफ कछुओं के 4 हजार से ज्यादा अंडो को बचा चुका है। इन अंडो को विशेषज्ञों की देखरेख में हेचरी में रखा जाता है और जब उनमें बच्चे निकल आते हैं तो उनको नदी के वातावरण के अनुकूल रखकर बड़ा किया जाता है। बाद में कछुओं को गंगा नदी में छोड़ दिया जाता है।

कछुओं के संरक्षण में पालेज खेती सबसे बड़ी समस्या है। गंगा नदी में रहने वाले कछुए गंगा के टापुओं और गंगा किनारे खादर की रेत में अंडे देते है। यहां खेती करने वाले किसान रेत में जुताई, बुआई के वक्त इन अंडो को खत्म कर देते हैं। डब्लूडब्लूएफ ने ऐसे किसानों को जागरूक करने के लिए बीते 8 सालों में 6 जिलों के 650 किसानों को कछुआ मित्र बनाया है।

रेत में खेती के वक्त मिलने वाले अंडो की सूचना डब्लूडब्लूएफ को दी जाती है और अंडो को रिकवर करके हेचरी तक पहुंचा दिया जाता है। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और खर्चीली है। जानकार मानते हैं कि अगर खादर में अवैध पालेज की खेती को रोका जा सके तो कछुओं का कुनबा और प्रजातियां दोनों तेजी से बढ़ सकेगी।

जब गंगा के खादर में हो रही अवैध पालेज के बारे में मेरठ वन विभाग के प्रभागीय निदेशक राजेश कुमार से बात की गयी तो उन्होंने कहा, "गंगा किनारे अवैध पालेज रोकने और गंगा की सफाई के लिए नमामि गंगे योजना के अन्तर्गत बड़े जागरूकता कार्यक्रम चलाये गये हैं। सामाजिक सहभागिता से इनका असर भी है। सभी विभागों के साथ हम प्रयासरत है।"

गंगा की स्वच्छता के लिए बने राष्ट्रीय कार्यक्रम नमामि गंगे के सलाहकार संदीप बेहरा कहते हैं कि अवैध पालेज और खनन को रोकना स्थानीय प्रशासन का काम है। "हम जिलास्तर से आये कार्यक्रमों पर अपनी सहमति देते हैं। बाकी क्या और कैसे है, इसकी जानकारी जिले के मुख्य विकास अधिकारी और प्रभागीय वन निदेशक के पास रहती है।

(यह रिपोर्ट 'गंगा ट्रेल' सीरीज का पांचवां भाग है। इस सीरीज के पहले चार भाग आप नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं।)

पार्ट 1: गंगा में पानी बढ़ने के साथ नई परेशानी, किनारे गड़े शवों के उतराने का खतरा

पार्ट 2: कोरोनाकाल में अपनों के इलाज के लिए क़र्ज़ के तले दबते परिवार

पार्ट 3: वाराणसी या प्रयागराज? देश की इकलौती कछुआ सेंचुरी, जो है भी और नहीं भी

पार्ट 4: वाराणसी में गंगा का 'विकास' कैसे बदलेगा नदी और इस पर निर्भर लोगों के जीवन को

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